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भगवती सूत्र - श. ७ उ. २ सुप्रत्याख्यान दुप्प्रत्याख्यान
सत्पर्य यह है कि हाथ या पात्र संसष्ट हो या असंसृष्ट, पश्चात्कर्म अर्थात् हाथ आदि का धोना, इस बात पर निर्भर नहीं है । पश्चात्कर्म का होना या न होना द्रव्य के न वचने या वचने पर आश्रित है । अर्थात् यदि दिया जाने वाला पदार्थ कुछ बाकी बच जाय तो हाथ या कुड़छी आदि के लिप्त होने पर भी उन्हें नहीं धोया जाता, क्योंकि उसी द्रव्य को परोसने की फिर संभावना रहती है। यदि वह पदार्थ बाकी न बचे, तो बर्तन आदि धो दिये जाते हैं । इसे साधु को पश्चात्कर्म दोष लगने की संभावना रहती हैं। इसलिये ऐसे भांगे कल्पनीय कहे गये हैं- जिनमें दी जाने वाली वस्तु सावशेष कही है । सारांश यह है कि लेप वाली वस्तु तभी कल्पनीय है जब वह लेने के बाद कुछ बाकी बची रहे । पूरी लेने पर ही पश्चात्कर्म दोष की संभावना है। लिप्त दोष का प्रचलित अर्थ यह है कि तत्काल के लपे हुए आंगन पर जाकर साधु आहारादि लेवे या उस पर जाकर दाता आहारादि देवे । (१०) छड्डिय (छर्दित) - जिसके छींटे नीचे पड़ रहे हों, ऐसा आहार लेना 'छर्दित दोष' है। एसे आहार में नीचे चलते हुए कीड़ी आदि जीवों की हिंसा का डर है, इसलिये साधु को अकल्पनीय है । "
एषणा के दोष साधु और गृहस्थ दोनों के निमित्त से लगते हैं ।
इन उपरोक्त समस्त दोषों को टालकर मुनि को आहारादि ग्रहण करना और भोगना चाहिये । इन दोषों का यह अर्थ और वर्णन पिण्डनिर्युक्ति, प्रवचनसारोद्वार आदि ग्रन्थों से लिया गया है ।
॥ इति सातवें शतक का पहला उद्देशक संपूर्ण ॥
शतक ७ उद्देशक २
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सुपत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान प्रश्न- १ सेणूणं भंते ! सव्वपाणेहिं सव्वभूएहिं सव्वजीवेहिं, मव्वसत्तेहिं पञ्चखायमिति वयमाणस्स सुपच्चक्खायं भवह, दुपञ्च
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