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भगवती सूत्र - श. ८ उ. ८ प्रत्यनीक
समीप न रहना, उनके उपदेश का उपहास करना, वैयावृत्य न करना आदि प्रतिकूल व्यव हार करने वाले इनके 'प्रत्यनीक' कहलाते हैं ।
मनुष्य आदि गति की अपेक्षा प्रतिकूल आचरण करने वाले 'गति प्रत्यनीक' कहलाते हैं। पंचाग्नि तप करने वाले की तरह अज्ञानवश इन्द्रियों के प्रतिकूल आचरण करनेवाला 'इहलोक - प्रत्यनीक' है । ऐसा करने वाला व्यर्थ ही इन्द्रिय और शरीर को दुःख पहुंचाता है। और अपना वर्तमान भव बिगाड़ना है । इन्द्रियों के विषयों में आसक्त रहने वाला - 'परलोक प्रत्यनीक' है । वह आसक्ति भाव से अशुभ कर्म उपार्जित करता है और परलोक में दुःख भोगता है । चोरी आदि करने वाला 'उभय-लोक प्रत्यनीक' है। वह व्यक्ति अपने कुकृत्यों से यहाँ दण्डित होता है और परभव में दुर्गति पाता है ।
ममूह ( साधु समुदाय) के विरुद्ध आचरण करने वाला 'समूह प्रत्यनीक' है । कुलप्रत्यनीक, गण प्रत्यनीक और संघ प्रत्यनीक के भेद से समूह प्रत्यनीक तीन प्रकार का है । एक आचार्य की संतति 'कुल' हैं, जैसे-चान्द्र आदि । आपस में संबंध रखने वाले तीन कुलों का समूह 'गण' कहलाता है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र के गुणों से अलंकृत मकल साधुओं का समुदाय 'संघ' है । कुल, गण और संघ के विरुद्ध आचरण करने वाले क्रमश: कुलप्रत्यनीक, गण प्रत्यनीक और संघ प्रत्यनीक कहलाते हैं ।
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अनुकम्पा करने योग्य साधुओं की आहारादि द्वारा सेवा नहीं करके उनके प्रतिकूल आचरण करने वाला साधु 'अनुकम्पा प्रत्यनीक' है। तपस्वी, ग्लान और शैक्ष ( नव दीक्षित ) ये तीन अनुकम्पा योग्य हैं। इनके भेद से अनुकंपा प्रत्यनीक के भी तीन भेद हैं। यथातपस्वी - प्रत्यनीक, ग्लान- प्रत्यनीक और शैक्षप्रत्यनीक ।
प्रत्यनीक - श्रुत के विरुद्ध कथन आदि करने वाला 'श्रुत प्रत्यनीक' है। सूत्र अर्थ और तदुभय के भेद से श्रुत तीन प्रकार का है। श्रुत के भेद से श्रुतप्रत्यनीक के भी सूत्र- प्रत्यनीक, अर्थ- प्रत्यनीक और तदुभय-प्रत्यनीक, ये तीन भेद हैं । शरीर, व्रत, प्रमाद, अप्रमाद आदि बातें लोक में प्रसिद्ध ही हैं । फिर शास्त्रों के अध्ययन से क्या लाभ ? निगोद, देव, नारकी आदि का ज्ञान भी व्यर्थ है । इस प्रकार शास्त्रज्ञान को निष्प्रयोजन
अथवा उसमें दोष बताने वाला 'श्रुत प्रत्यनीक' है ।
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भावप्रत्यनीक - क्षायिकादि भावों के प्रतिकूल आचरण करने वाला 'भाव - प्रत्यनीक' है । ज्ञान, दर्शन और चारित्र के भेद से भाव प्रत्यनीक के तीन भेद हैं। ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विरुद्ध आचरण करना अथवा इनमें दोष आदि दिखाना 'भावप्रत्यनीकता' है।
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