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भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ आजीविकोपासक और श्रमणोपासक
जिन धन्धों और कार्यों से ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का विशेषरूप से ग्रहण (बन्ध) होता है, उन्हें-'कर्मादान' कहते हैं । अथवा कर्मों के हेतुओं को 'कर्मादान' कहते हैं । उन कर्मादानों का आचरण स्वयं करना, दूसरों से कराना और अनुमोदन करना नहीं कल्पता। कमांदान पन्द्रह हैं। उनके नाम और अर्थ इस प्रकार है
१ इंगालकम्मे (अंगारकर्म)-अंगार अर्थात् अग्नि विषयक कार्य को 'अंगारकर्म' कहते हैं । अग्नि से कोयला बनाने और बेचने का धन्धा करना । इसी प्रकार अग्नि के . प्रयोग से होने वाले दूसरे कर्मों का भी इसमें ग्रहण हो जाता है। जैसे कि- ईटों के भट्टे (पजावा) पकाना आदि।
२ वणकम्मे (वनकर्म)-वन विषयक कर्म को 'वन कर्म' कहते हैं। जंगल को खरीद कर वृक्षों और पत्तों आदि को काटकर बेचना और उससे आजीविका करना'वनकर्म' है । इसी प्रकार (वनोत्पन्न) बीजों का पीसना (आटे आदि की चक्की आदि) भी वनकर्म है।
- ३ साडीकम्मे (शाकटिक कर्म)-गाड़ी, तांगा, इक्का आदि तथा उनके अवयवों (पहिया आदि) को बनाने और बेचने आदि का धन्धा करके आजीविका करना 'शाकटिक कर्म' है।
४ भाडीकम्मे (माटी कर्म)-गाड़ी आदि से दूसरों का सामान एक जगह से दूसरी जगह भाड़े से ले जाना । बैल, घोड़े आदि किराये पर देना और मकान आदि बना बना कर भाड़े पर देना, इत्यादि धन्धे कर के आजीविका करना 'माटोकर्म' है।
५ फोडीकम्मे (स्फोटिक कर्म)-हल कुदाली आदि से भूमि को फोड़ना। इस प्रकार का धन्धा करके आजीविका करना 'स्फोटिक कर्म' है।
६ दंतवाणिज्जे (दन्तवाणिज्य)-हाथी दांत, मृग आदि का चर्म (मृगछाला आदि) चमरी गाय के केशों से बने हुए चामर और पूतिकेश (भेड़ के केश-ऊन) आदि को खरीदने और बेचने का धन्धा करके आजीविका करना 'दंतवाणिज्य' है।
७ लक्खवाणिज्जे (लाक्षाषाणिज्य)-लाख का क्रय-विक्रय करके आजीविका करना 'लाक्षावाणिज्य' है । इसमें त्रस जीवों की महाहिंसा होती है । इसी प्रकार त्रस जीवों की उत्पत्ति के कारणभूत तिलादि द्रव्यों का व्यापार करना भी इसी में सम्मिलित है।
. ८ केसवाणिज्जे (केशवाणिज्य)-केशवाले जीवों का अर्थात् गाय, भैस आदि पशु तथा दासी मादि को बेचने का व्यापार करना 'केशवाणिज्य' है।
९ रसवाणिज्जे (रसवाणिज्य)-मदिरा आदि रसों को बेचने का धन्धा करना,
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