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भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ आजीविकोपासक और श्रमणोपासक
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और कन्दमूल के विवर्जक (त्यागी) होते हैं। वे अनिाञ्छित (खसी नहीं किये हुए) और नहीं नाथे हुए (जिनका नाक बिंधा हुआ नहीं) ऐसे बलों द्वारा त्रस प्राणी की हिंसा रहित व्यापार से आजीविका करते हैं। जब गोशालक के उपासक भी इस प्रकार से हिंसा रहित व्यापार द्वारा आजीविका करते हैं, तो जो श्रमणोपासक हैं, उनका तो कहना ही क्या ? क्योंकि उन्होंने तो विशिष्टतर देव-गुरु-धर्म का आश्रय लिया है। जो श्रमणोपासक होते हैं, उन्हें ये पन्द्रह कर्मादान स्वयं करना, दूसरों से करवाना और करते हुए का अनुमोदन करना नहीं कल्पता । वे कर्मादान इस प्रकार हैं--
१ अंगारकर्म २ वनकर्म ३ शाकटिक कर्म ४ भाटी कर्म ५ स्फोटक कर्म ६ दन्तवाणिज्य ७ लाक्षावाणिज्य ८ केशवाणिज्य ९ रसवाणिज्य १० विषवाणिज्य ११ यन्त्रपीडनकर्म १२ निर्लाञ्छनकर्म १३ दावाग्निदापनता १४ सरोहृदतड़ाग-शोषणता और १५ असतीपोषणता । ये श्रमणोपासक शुक्ल (पवित्र) शुक्लाभिजात (पवित्रता प्रधान) होकर काल के समय काल करके किसी एक . देवलोक में देव रूप से उत्पन्न होते हैं।
.११ प्रश्न-हे भगवन् ! कितने प्रकार के देवलोक कहे गये हैं ?
११ उत्तर-हे गौतम ! चार प्रकार के देवलोक कहे गये हैं । यथाभवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक ।
- 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं।
विवेचनयहाँ गोशालक के शिष्यों का वर्णन दिया गया है। उनके मुख्यरूप से ताल, तालप्रलम्ब आदि बारह आजीविकोपासकों के नाम दिये गये हैं । वे उदुम्बर आदि पाँच प्रकार के फल नहीं खाते।अनिाञ्छित और नाक न छिदे हुए बलों से, त्रस प्राणियों की हिंसा रहित व्यापार से अपनी आजीविका करते हैं । विशिष्ट योग्यता से रहित होने पर भी जब कि वे इस प्रकार से धर्म की इच्छा करते हैं, तो फिर जीवाजीवादि तत्त्वों के ज्ञाता श्रमणोपासक तो धर्म की इच्छा करें, इसमें कहना ही क्या है ? अर्थात् वे तो धर्म की इच्छा करते ही हैं । क्योंकि उन्हें तो विशिष्ट देव, गुरु और धर्म की प्राप्ति हुई है।
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