SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती सूत्र - श. उ. ५ आजीविकोपासक और श्रमणोपासक ११ उत्तर - गोयमा ! चव्विहा देवलोगा पण्णत्ता, तं जहाभवणवासी, वाणमंतरा, जोइसिया, वेमाणिया । सेवं भंते! सेवं भंते । त्ति ॥ अट्टमस पंचमओ उद्देसओ समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ -- अयमट्ठे - यह अर्थ अक्खीणपडिमोइणो-- अक्षीणपरिभोगी - सचित्ताहारी सचित्त का आहार करने वाले हंता - हननकर ( मारकर ) छेत्ता - छेदनकर (टुकड़ेकर ) भेता - भेदकर (शूलादि भोंककर ) लुंपित्ता-- लोपकर (पंख आदि तोड़कर ) विलुं - पित्ता- विलोपकर ( चमड़ी उधड़कर) उद्दवइत्ता अपद्रव्य - विनाश करके, अम्मापि सुस्सूसगामाता-पिता की सेवा करने वाले, पंचफलपडिक्कंता- पांच प्रकार के फल के त्यागी, उंबरेहिगूलर के, वह बड़ के, बोरेहि बेर के, सतरोहि- सतर ( शहतूत ) के, पिलखहि - पीपल के पलंडू – प्याज- कान्दा, अणिल्लंछिएहि - अनिलछित बधिये खसी नहीं किये हुए) अणक्कभिण्र्णोह- ह - नाक में नाथ नहीं डाले हुए, गोणेह - बैल से, वित्तहि - वृत्ति (व्यापार) से वित्त कप्पेमाणे- आजीविका चलाते हुए, किमंगपुण - क्या कहना ( अथवा उनका तो कहना ही क्या ? ) सुक्का, सुक्काभिजाइया - पवित्र और पवित्रता प्रधान । १३८८ भावार्थ - १० प्रश्न - आजीविक ( गोशालक ) के सिद्धांत का यह अर्थ है कि- ' प्रत्येक जीव अक्षीणपरिभोगी अर्थात् सचित्ताहारी है।' इसलिये वे Mast आदि से पीटकर, तलवार आदि से काट कर, शूलादि से भेदन कर, पांख आदि को कतरकर, चमडी आदि को उतार कर और विनाश करके खाते हैं, अर्थात् संसार के दूसरे प्राणी इस प्रकार जीवों को हनने में तत्पर हैं, परंतु आजीविक के मत में ये बारह आजीविकोपासक कहे गये हैं। यथा-१ ताल, २ तालप्रलम्ब, ३ उद्विध, ४ संविध, ५ अवविध ६ उदय, ७ नामोदय, ८ नर्मोदय ९ अनुपालक, १० शंखपालक, ११ अयम्पुल और १२ कातर । ये बारह आजीविक के उपासक हैं । इनका देव गोशालक है। वे माता पिता की सेवा करनेवाले होते हैं । वे पांच प्रकार के फल नहीं खाते, यथा-१ उम्बर के फल, २ बड़ के फल, 1 ३ बोर, ४ सत्तर ( शहतूत ) का फल और ५ पीपल का फल । वे प्याज, लहसून 1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy