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भगवती सूत्र-श.७ उ. १ श्रमणोपासक के उदार प्रत
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कठिन शब्दार्थ-सामाइयकडस्स-मामायिक करने वाले, अच्छमाणस्स-बैठे हुए के, संपराइया-कषाय संबंधी, अहिगरणी-अधिकरणी (जीव-वधादि आरम्भ और क्रोधादि कषाय के साधन)।
भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! श्रमण (साधु) के उपाश्रय में बैठे हुए सामायिक करने वाले श्रमणोपासक (साधुओं का उपासक-श्रावक) को क्या ऐपिथिको क्रिया लगती है, या साम्परायिकी क्रिया लगती है ? ।
५ उत्तर-हे गौतम ! ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं लगती, किंतु साम्परायिकी क्रिया लगती है।
प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ?
उत्तर-हे गौतम ! श्रमण के उपाश्रय में बैठे हुए सामायिक करने वाले श्रमणोपासक की आत्मा अधिकरणी (कषाय के साधन से युक्त) है । उसकी आत्मा अधिकरण का निमित्त होने से उसे ऐपिथिको क्रिया नहीं लगती, किंतु साम्परायिकी क्रिया लगती है। इस कारण यावत् साम्परायिकी क्रिया लगती है।
विवेचन-जो व्यक्ति सामायिक नहीं किया हुआ है तथा साधु के उपाश्रय में नहीं बैठा हुआ है, उसको साम्परायिकी क्रिया लगती है, किंतु जो व्यक्ति सामायिक करके साधु के उपाश्रय में बैठा हुआ है, क्या उसको भी साम्परायिकी क्रिया लगती है ? यह प्रश्न है । इसके उत्तर में कहा गया है कि जो श्रावक सामायिक करके साधुओं के उपाश्रय में बैठा हुआ है, उसे भी साम्परायिकी क्रिया लगती है। क्योंकि साम्परायिकी क्रिया, कषाय के कारण लगती है। उस श्रावक में कषाय का सद्भाव है । इसलिए उसे साम्परायिकी क्रिया लगती है, किंतु ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं लगती।
श्रमणोपासक के उदार व्रत
६ प्रश्न-समणोवासयस्स णं भंते ! पुवामेव तसपाणसमारंभे पञ्चक्खाए भवइ, पुढविसमारंभे अपञ्चक्खाए भवह; से य पुढविं
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