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भगवती सूत्र - श ८ उ. ८ प्रत्यनीक
२ ततगति-तत अर्थात् विस्तार वाली गति को 'ततगति' कहते हैं। जैसे- कोई व्यक्ति दूसरे गांव जाने के लिये रवाना हुआ, परन्तु अभी उस ग्रामादि में पहुँचा नहीं, उसकी एक एक पैर रखते हुए जो क्षेत्रान्तर प्राप्ति रूप गति होती है, वह 'ततर्गत ' कहलाती है । इस गति का विषय विस्तृत होने से इसके साथ 'तत' यह विशेषण लगाया गया है, अतएव इसका कथन पृथक् किया गया है । अन्यथा पैरों से चलना' यह कायव्यापार रूप है, अतः इसका प्रयोग गति में ही समावेश हो जाता है ।
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३ बन्धनछदन गति-बन्धन के छेदन से होने वाली गति-' बन्धन छेदनगति' कहलाती है । जैसे-जीव से मुक्त शरीर की अथवा शरीर से मुक्त जीव की गति होती है ।
४ उपपात गति - उत्पन्न होने रूप गति को 'उपपात गति' कहते हैं। इसके तीन भेद हैं। क्षेत्र उपपात, भव उपपात और नोभवोपपात । जहाँ नारकादि जीव और सिद्ध जीव रहते हैं वह आकाश क्षेत्रोपपान' कहलाता है । कर्मों के वश होकर जीव, जिस नारकादि पर्याय में उत्पन्न होते हैं, वह 'भोपान' कहलाता है। कर्म सम्बन्ध से रहित अर्थात् नारकादि पर्याय से रहित उत्पन्न होने रूप गति 'नोभवोपपात' गति कहलाती है। इस प्रकार की गति सिद्ध जीव और पुद्गलों में पाई जानी है !
५ विहायोगति - आकाश में होने वाली गति को 'विहायोगति' कहते हैं ।
इन गतियों के भेद, प्रभेद, उनका स्वरूप एवं विस्तृत वर्णन प्रज्ञापना सूत्र के सोलहवें प्रयोगपद में है ।
॥ इति आठवें शतक का सातवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥
शतक उद्देशक
प्रत्यनीक
१ प्रश्न - रायगिहे जाव एवं वयासी-गुरू णं भंते ! पडुच्च कड़ परिणीया पण्णत्ता ?
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