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भगवती सूत्र - ग. ८ उ. ७ अन्य तीर्थिक और स्थविर संवाद.
५ विहायोगति । यहां से प्रारम्भ करके प्रज्ञापना सूत्र का सोलहवां प्रयोग पद सम्पूर्ण कहना चाहिये । यावत् 'यह विहायोगति का वर्णन हुआ' - यहां तक कहना चाहिये ।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते है ।
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विवेचन - राजगृह नगर के बाहर बहुत से अन्यतीर्थिक रहते थे। एक समय वे श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के स्थविर मुनियों के पास आये और उनसे कहा कि तुम तीन करण तीन योग से असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो, क्योंकि तुम अदत्त को ग्रहण करते हो, अदत्त खाते हो और अदत्त की अनुमति देते हो, तब स्थविर मुनियों ने उनको युक्तिपूर्वक समझाया कि हम ( जैन मुनि) अदत्त ग्रहण नहीं करते, अदत्त नहीं खाते और अदत्त की अनुमति भी नहीं देते । अपितु तुम ही अदत्त ग्रहण करते हो यावत् अदत्त की अनुमति देते हो । अतः तुम ही तीन करण तीन योग से असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो । इसके बाद अन्यतीर्थिकों के प्रश्न के उत्तर में स्थविर भगवन्तों ने उन्हें यह भी समझाया कि हम शारीरिक कारण के लिये, ग्लानादि की सेवा के लिये तथा जीवरक्षा रूप संयम के लिये एक स्थान से दूसरे स्थान पर यतनापूर्वक गमनागमन करते हैं । इसलिये हम पृथ्वीकायिकादि किसी भी जीव को नहीं दबाते, यावत् नहीं मारते । अतएव हम त्रिविध-त्रिविध संयत, विरत यावत् एकान्त पण्डित हैं । किन्तु हे आर्यों ! तुम एक स्थान से दूसरे स्थान पर अयतनापूर्वक गमनागमन करते हो। इस प्रकार तुम पृथ्वीकायिक आदि जीवों को दबाते हो यावत् मारते हो । अतएव तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो ।
स्थविर भगवन्तों ने इस प्रकार उत्तर देकर अन्यतीर्थिकों को निरुत्तर किया। इसके बाद उन्हें 'गतिप्रपास' नामक अध्ययन कहा। गतिप्रपात के पांच भेद हैं। यथा- प्रयोग गति, ततगति, बन्धनछेदन गति, उपपात गति और विहायोगति । संक्षेप में इनका अर्थ इस प्रकार है ।
१ प्रयोग गति - जीव के व्यापार से अर्थात् पन्द्रह प्रकार के योगों से जो गति हो, वह 'प्रयोगगति' कहलाती है । यहाँ क्षेत्रान्तर या पर्यायान्तर प्राप्ति रूप गति समझनी चाहिये, क्योंकि जीव के द्वारा व्यावृत सत्यमनोयोग आदि के पुद्गल अल्प मात्रा में अथवा अधिक मात्रा में क्षेत्रान्तर गमन करते हैं ।
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