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________________ १३१८ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान अज्ञान की भजना के बीस द्वार असंज्ञी से देव गति में उत्पन्न होते हैं, उन्हें अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता, इसलिये उनमें दो अज्ञान होते हैं । जो अज्ञानी संज्ञी से आकर देवगति में उत्पन्न होते हैं, उन्हें भवप्रत्यय विभंगज्ञान होता है, इसलिए वे तीन अज्ञान वाले होते हैं । अतएव तीन अज्ञान भजना से कहे गये हैं। सिद्ध और सिद्धगतिक जीवों में कोई भेद नहीं हैं, तथापि यहाँ गति-द्वार का प्रकरण चल रहा है, इस क्रम के कारण सिद्धगतिक जीवों का पृथक् निर्देश कर दिया गया है। २ इन्द्रिय द्वार-सन्द्रिय का अर्थ है-'इन्द्रिय वाले जीव' अर्थात् इन्द्रियों के उपयोग से काम लेने वाले जीव। ये ज्ञानी और अज्ञानी दोनों प्रकार के होते हैं। इनमें से ज्ञानी जीवों को चार ज्ञान भजना से होते हैं अर्थात् किन्हीं को दो, कुछ को तीन और कुछ को चार ज्ञान होते हैं, उन्हें केवलज्ञान नहीं होता, क्योंकि केवलज्ञान तो अतीन्द्रिय ज्ञान है । यहाँ दो, तीन आदि ज्ञानों का कथन किया गया है, वह लब्धि की अपेक्षा समझना चाहिये । क्योंकि उपयोग की अपेक्षा तो सभी जीवों को एक समय में एक ही ज्ञान होता है । अज्ञानो सेन्द्रिय जीवों को तीन अज्ञान भजना से होते हैं, अर्थात् किन्हीं जीवों को दो और किन्हीं जीवों को तीन अज्ञान होते हैं। एकेन्द्रिय जीव मिथ्यादृष्टि होते हैं, अतएव वे अज्ञानी ही होते हैं । उन में नियम से दो अज्ञान होते हैं । बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौरिन्द्रिय में दो ज्ञान या दो अज्ञान नियम से होते हैं, क्योंकि उनमें सास्वादन गुणस्थान होना सम्भव है । उस अवस्था में दो ज्ञान पाये जाते हैं । इसकी स्थिति उत्कृष्ट छह आवलिका की है । इसके अतिरिक्त दो अज्ञान होते हैं। ___ अनिन्द्रिय अर्थात् इन्द्रियों के उपयोग से रहित जीव केवलज्ञानी होते हैं । उनका कथन सिद्ध जीवों के समान है अर्थात् उनमें एक मात्र केवलज्ञान पाया जाता है। ३ काय द्वार-काया अर्थात् औदारिकादि शरीर, अथवा पृथ्वीकायिक आदि छह काय । काय सहित को 'सकायिक' जीव कहते हैं । वे केवली भी होते हैं, इसलिये सका. यिक सम्यग्दृष्टि जीव में पांच ज्ञान भजना से होते हैं और मिथ्यादृष्टि जीवों में तीन अज्ञान भजना से होते हैं । जिनके औदारिक आदि काय नहीं है, अथवा जो पृथ्वीकाय आदि छहों काय में से किसी भी काय में नहीं हैं, वे 'अकायिक' कहलाते हैं । अकायिक जीव सिद्ध होते हैं, उनमें एक केवलज्ञान होता है। ४ सूक्ष्म द्वार-सूक्ष्म जीव, पृथ्वीकायिक के समान मिथ्यादृष्टि होते हैं । मतः उनमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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