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भगवती सूत्र - - श. ७ उ ५ खेचर तियंच के भेद
एक एक पहरे -निकाले तो जघन्य पद में असंख्यात अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी काल में और उत्कृष्ट पद में भी असंख्यात अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी काल में निर्लेप (खाली) होते हैं । जघन्यपद से उत्कृष्ट पद में काल असंख्यात गुणा अधिक समझना चाहिये । इसी तरह अकाय, ते काय और वायुकाय का भी कहना चाहिये । वनस्पतिकाय अनन्तानन्त होने से कभी निर्लेप नहीं होती । त्रसकाय, जघन्य पृथक्त्व सौ सागर में और उत्कृष्टपद में भी पृथक्त्व सौ सागर में निर्लेप होती है, किन्तु जघन्यपद से उत्कृष्ट पद में काल विशेषाधिक है ।
अविशुद्ध लेश्या वाले अवधिज्ञानी अनगार के, देव देवी आदि को जानने सम्बन्धी बारह आलापक कहने चाहिये ।
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अन्तर्थिक कहते हैं कि एक जीव, एक समय में सम्यक्त्व की ओर मिथ्यात्व की ये दो क्रिया करता है । अन्यतीर्थिकों का यह कथन मिथ्या है, क्योंकि एक जीव, एक समय में एक ही क्रिया कर सकता है, दो क्रिया नहीं कर सकता ।
इस प्रकार यह सारा वर्णन जीवाभिगम सूत्र के तिर्यञ्च के दूसरे उद्देशक के समान कहना चाहिये ।
॥ इति सातवें शतक का चौथा उद्देशक सम्पूर्ण ॥
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शतक ७ उद्देशक ५
खेचर तिर्यंच के भेद
१ प्रश्न - रायगिहे जाव एवं वयासी - खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते! कइविहे जोणीसंग पण्णत्ते ?
१ उत्तर - गोयमा ! तिविहे जोणीसंगहे पण्णत्ते, तं जहा - अंडया, पोयया, सम्मुच्छिमा ; एवं जहा जीवाभिगमे, जाव 'णो चेव णं ते
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