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भगवती सूत्र-श. ८ उ. ६ अकृत्यमेवी आराधक ?
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सिया, सा णं भंते ! किं आराहिया, विराहिया ? . १३ उत्तर-गोयमा ! आराहिया, णो विराहिया। सा य संपट्ठिया जहा णिग्गंथस्स तिण्णि गमा भणिया एवं णिग्गंथीए वि तिण्णि आलावगा भाणियव्वा, जाव आराहिया, णो विराहिया ।
____कठिन शब्दार्थ-वियारभूमि-नीहारभूमि (स्थंडिलभूमि) विहारभूमि-स्वाध्याय भूमि, णिक्खंतेणं-जाते हुए, पत्तिणिए-प्रवर्तिनी के पास ।
___-भावार्थ-१२-कोई मुनि बाहर विचारभूमि (नोहार भूमि) अथवा विहारभूमि की ओर जाते हुए, उसके द्वारा किसी अकार्य का सेवन हो गया हो, फिर उसके मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ हो कि 'प्रथम में स्वयं यहाँ इस अकार्य की आलोचना आदि करूं,' इत्यादि पूर्ववत् सारा वर्णन कहना चाहिये । पूर्वोक्त प्रकार से संप्राप्त और असम्प्राप्त दोनों के आठ आलापक कहना चाहिये यावत् वह मुनि आराधक है, विराधक नहीं, यहाँ तक कहना चाहिये । ग्रामानुग्राम विचरते हुए किसी मुनि द्वारा अकार्य का सेवन हो जाय, तो उसके भी इसी प्रकार आठ आलापक जानना चाहिये। यावत् वह मुनि आराधक है, विराधक नहीं-यहां तक कहना चाहिए ।
.१३ प्रश्न-कोई साध्वी गोचरी के लिये गृहस्थ के घर गई । वहां उसके द्वारा किसी अकार्य का सेवन हो गया। तत्पश्चात् उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि 'पहले मैं यहीं अकृत्य स्थान की आलोचना करूं, यावत् तपकर्म को स्वीकार करूं, इसके बाद प्रवर्तिनी के पास आलोचना करूंगी यावत् तपकर्म को स्वीकार करूंगी,-ऐसा विचार कर वह साध्वी, प्रतिनी के पास जाने के लिये निकली । प्रवर्तिनी के पास पहुंचने के पहले ही वह प्रवर्तिनी, वात आदि दोष के कारण मक हो गई (जिव्हा बन्द हो गई-बोल न सकी)। तो हे भगवन् ! क्या वह साध्वी आराधक है, या विराधक ?
१३ उत्तर-हे गौतम ! वह साध्वी आराधक है, विराधक नहीं। जिस
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