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भगवती मूत्र-ग. ७. उ. १ श्रमणों को प्रतिलाभने का लाभ
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७ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि वह वनस्पति के वध के लिए प्रवृत्ति नहीं करता।
विवेचन-जिम श्रावक ने त्रम जीव मारने का त्याग किया है तथा जिस श्रावक ने वनस्पतिकाय के जीवों को मारने का त्याग किया है, तो पृथ्वी खोदते समय उसके हाथ से त्रस जीव की हिंसा हो जाय अथवा किसी वृक्ष की जड़ कट जाय, तो उसके लिये हुए त्याग व्रत में कोई अतिचार नहीं लगता। क्योंकि सामान्यतया देशविरति श्रावक को संकल्पपूर्वक हिंसा का त्याग होता है, इसलिए जिन जीवों की हिंसा का उसने प्रत्याख्यान किया है, उन जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा करने के लिए जबतक वह प्रवृत्ति नहीं करता, तब तक उमके व्रत में दोष नहीं लगता।
श्रमणों को प्रतिलाभने का लाभ
.: ८ प्रश्न-समणोवासए णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासु-एसणिजेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेमाणे किं लव्भइ ? . . ___८ उत्तर-गोयमा ! समणोवासए णं तहारूवं समणं वा जाव पडिलाभेमाणे तहारूवस्स समणस्स वा माहगस्स वा समाहिं उप्पा. एइ, समाहिकारए णं तामेव समाहिं पडिल भइ ।
९ प्रश्न-समणोवासए णं भंते ! तहारूवं समणं वा जाव पडिलाभेमाणे किं चयइ ?
९ उत्तर-गोयमा ! जीवियं चयइ, दुच्चयं चयइ, दुक्कर करेइ, दुल्लहं लहइ, बोहिं बुज्झइ, तओ पच्छा सिज्झइ, जाव अंतं करेइ ।
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