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भगवती सूत्र - दा. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग- परिणतादि स्वरूप
तगा वि । गभवक्कं तियअपज्जत्तगा एवं चैव, पज्जत्तगा णं एवं चेव । वरं मरीरगाणि चत्तारि जहा वायरवा उक्काइआणं पज्जत्तगाणं; एवं जहा जलयरेसु चत्तारि आलावगा भणिया एवं चउप्पयउरपरिसप्प भुयपरिसप्प - खहयरेसु वि चत्तारि आलावगा भाणियव्वा । जे संमुच्छिममणुस्सपंचिंदियपओगपरिणया ते ओरालिय-तेयाकम्मसरीर० जाव परिणया । एवं गव्भवक्कंतिया वि; अपजत्तग पजत्तगा वि एवं चैव, णवरं सरीरगाणि पंच भाणियव्वाणि । जे अपजत्ता असुरकुमारभवणवासि० जहा णेरइया तव एवं पज्जत्तगा वि; एवं दुयएणं भेrणं जाव थणियकुमारा । एवं पिसाया, जाव गंधव्वा, चंदा, जाव ताराविमाणा, सोहम्मकप्पो०, जाव अच्चुओ: हेमिट्रिम वेज्जग०, जाव उवरिमउवरिमगेवेज्जग०, विजयअणुत्तरोववाइए, जाव सव्वट्टसिद्ध अणुत्तरोववाइए; एक्वेक्के णं दुयओ भेओ भाणियव्वो, जाव जे य पज्जत्तासव्वट्टसिद्ध अणुत्तरोववाड्अ०, जाव परिणया ते वेउब्विय तेया- कम्मासरीरपओगपरिणया । ( दं. ३ )
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कठिन शब्दार्थ - ओरालिय-औदारिक शरीर, तेथा- तेजस् शरीर, कम्मग - कार्मण शरीर, वेडव्यि- वैक्रिय शरीर ।
भावार्थ- जो पुद्गल अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय एकेन्द्रिय प्रयोग- परिणत हैं, वे औदारिक, तेज और कार्मण शरीर प्रयोग-परिणत हैं । जो पुद्गल पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीका एकेन्द्रिय प्रयोग- परिणत हैं, वे औदारिक, तेजस् और कार्मण शरीर प्रयोग - परिणत हैं । इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय पर्याप्त तक जानना
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