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________________ भगवती मूत्र-ग. ८ . १ पृद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप ८५ और अपर्याप्त ये दो दो भेद कहने चाहिये। २४ प्रश्न-हे भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक-कल्पातीत देव प्रयोगपरिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ... २४ उत्तर-हे गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-पर्याप्त सर्वार्थ. सिद्ध-अनुत्तरौपपातिक-कल्पातीत देव प्रयोग-परिणत पुद्गल और अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध प्रयोग-परिणत पुद्गल । ( दण्डक २ ) विवेचन-प्रथम दण्डक में पृथ्वीकाय मे लेकर सर्वार्थसिद्ध तक जीवों का कथन किया गया है। उन्हीं जीवों में एकेन्द्रिय जीवों में के प्रत्येक के सूक्ष्म और बादर के भेद से दो दो भंट कहे गये हैं और फिर सूक्ष्म और वादर, इनके पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद मे दो दो भद कहे गये हैं । इसके आगे के नव जीवों के प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो दो भेद कहे गये हैं । सम्मूच्छिम मनुष्य का केवल एक अपर्याप्त भेद ही है । तीसरा दण्डक - जे अपजत्तामुहमपुढविक्काइयएगिदियपयोगपरिणया ते ओरालिय-तेयाकम्मगसरीरप्पयोगपरिणया । जे पजत्तमुहम० जाव परिणया ते ओरालिय-तेयाकम्मगसरीरप्पयोगपरिणया, एवं जाव चरिदिया पन्जता; णवरं जे पजतावायरवाउकाइअएगिदियप्पयोगपरिणया ते ओरालिय-वेरब्बिय-तेया-कम्मसरीर० जाव परिणया; मेमं तं चेव । जे अपजत्तरयणप्पभापुढविणेरड्यपंचिंदियपयोगपरिणया ते वेउब्वियतेया-कम्ममरीरप्पयोगपरिणया; एवं पजत्तगा वि, एवं जाव अहेमत्तमा । जे अपजत्तासमुच्छिमजलयर० जाव परिणया ते ओरालियन्तेयाकम्मासरीर० जाव परिणया, एवं पन्ज Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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