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भगवता सूत्र-श. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप
२३ प्रश्न-असुरकुमारभवणवासिदेवाणं पुच्छा ।
२३ उत्तर-गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पजत्तगअसुरकुमार० अपजत्तगअसुरकुमार०, एवं जाव थणियकुमारा पन्जत्तगा अपजत्तगा य । एवं एएणं अभिलावेणं दुयएणं भेएणं पिसाया, जाव गंधव्वा, चंदा, जाव ताराविमाणा, सोहम्मकप्पोवगा, जाव अच्चुओ; हेट्ठिमहेट्ठिमगेविजकप्पातीत० जाव उवरिमउवरिमगेविज; विजयअणुत्तरोववाइअ०, जाव अपराजिअ०। ... २४ प्रश्न-सम्वट्ठसिद्धकप्पाईय० पुच्छा।
२४ उत्तर-गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पजत्तासवट्टसिद्धअणुत्तरोववाइअ०, अपजत्तासम्वट्ठ० जाव परिणया वि (दं.२)
कठिन शब्दार्थ-एएणं-इस ।
भावार्थ--२३ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार भवनवासी देव प्रयोगपरिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ?
२३ उत्तर-हे गौतम! वे दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-पर्याप्त असुरकुमार भवनवासी देव प्रयोग-परिणत पुद्गल और अपर्याप्त असुरकुमार भवनवासी देव प्रयोग-परिणत पुद्गल। इसी प्रकार यावत् स्तनित कुमारों तक पर्याप्त
और अपर्याप्त ऐसे दो दो भेद कहने चाहिये । इसी प्रकार पिशाच से लेकर • गन्धर्व तक आठ प्रकार के वाणव्यन्तर देवों के तथा चन्द्र से लेकर तारा विमान पर्यन्त पांच प्रकार के ज्योतिषी देवों के एवं सौधर्म कल्पोपपन्नक यावत् अच्युत कल्पोपत्रक तक और अधस्तन-अधस्तन ग्रंवेयक कल्पातीत से लेकर उपरितनउपरितन प्रवेयक कल्पातीत देव प्रयोग-परिणत पुद्गल के एवं विजय अनुत्तरीपपातिक कल्पातीत यावत् अपराजित अनुत्तरोपपातिक देवों के प्रत्येक के पर्याप्त
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