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भगवती सूत्र - श. ८ उ. ५ श्रावक के भाण्ड
हैं। वे जैनागमों में 'क्रिया' शब्द से कही गई हैं । यहाँ कायिकी आदि पांच क्रियाओं का वर्णन किया गया है । उनका सामान्यतः अर्थ इस प्रकार है;
afrat क्रिया के दो भेद हैं- अनुपरतकायिकी और दुष्प्रयुक्त कायिकी । हिंसादि सावद्य योग से देशतः अथवा सर्वतः अनिवृत्त जीवों को अनुपश्तकायिकी क्रिया लगती है । यह क्रिया सभी अविरत जीवों को लगती है । कायादि के दुष्प्रयोग द्वारा होने वाली क्रिया. को 'दुष्प्रयुक्त कायिकी' क्रिया कहते हैं। यह क्रिया प्रमत्त संयत को भी लगती है । अधिकरणिकी क्रिया के दो भेद हैं- संयोजनाधिकरणिकी और निर्वत्तनाधिकरणिकी । पहले से बने हुए अस्त्र शस्त्र आदि हिंसा के साधनों को एकत्रित कर तैयार रखना संयोजनाधिकरणिकी क्रिया है । नवीन अस्त्र शस्त्रादि बनवाना निर्वत्तनाधिकरणिकी क्रिया है । अपने स्वयं का, दूसरों का और उभय ( स्व और पर दोनों) का अशुभ चिन्तन करना-'प्राद्वेषिकी क्रिया' है। अपने आपको, दूसरों को अथवा उभय को परिताप उपजाना, दुःख देना --' पारितापनिकी क्रिया' है। अपने आपको, दूसरों को अथवा उभय को जीवन रहित करना - 'प्राणातिपातिकी क्रिया' है।
इन क्रियाओं के अतिरिक्त आरम्भिकी आदि क्रियाओं का स्वरूप और उनका पारस्परिक अल्पबहुत्व इत्यादि बातों का विस्तृत कथन प्रज्ञापना सूत्र २२ वें क्रियाप में है ।
॥ इति आठवें शतक का चौथा उद्देशक सम्पूर्ण ॥
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शतक उद्देशक ५ श्रावक के भाण्ड
१ प्रश्न - रायगिहे जाव एवं वयासी - आजीविया णं भंते ! थेरे भगवंते एवं वयासी - समणोवासगस्स णं भंते ! सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स के भंड अवहरेज्जा, सेणं भंते
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