SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२७० भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम विषय में कहना चाहिये, यावत् पर्याप्त सर्वार्थ सिद्ध-अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रिय वैक्रिय-मिश्र-शरीर काय-प्रयोग-परिणत नहीं होता, किंतु अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रिय वक्रियमिश्र-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है। विवेचन-(३) वैक्रिय-काय-योग, वक्रिय-शरीर द्वारा होने वाले वीर्यशक्ति के व्यापार को 'वैक्रिय काय-योग' कहते हैं । यह मनुष्यों के और तियंचों के वैक्रिय लन्धि के बल से वैक्रिय-शरीर धारण कर लेने पर होता है । देव और नैरयिक जीवों के क्रियकाय-योग 'भव प्रत्यय' होता है। . (४) वैक्रिय-मिश्र-काय-योग, वैक्रिय और कार्मण अथवा वैक्रिय और औदारिक, इन दो शरीरों के द्वारा होने वाले वीर्य-शक्ति के व्यापार को वैक्रिय-मिश्र काय-योग' कहते हैं। वैक्रिय और कार्मण सम्बन्धी वैक्रिय-मिश्र-काय-योग, देवों तथा नारकों को उत्पत्ति के समय से लेकर जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो तब तक रहता हैं । वैक्रिय और औदारिक, इन दो शरीरों सम्बन्धी वक्रिय मिश्र-काय-योग, मनुष्यों और तियंचों में तभी पाया जाता है जब कि वे लब्धि के बल से वैक्रिय शरीर का आरम्भ करते हैं । बैंक्रियशरीर का त्याग करने में वैक्रिय-मिश्र नहीं होता, किन्तु औदारिक-मिश्र होता है। यहां पर कार्मण तथा औदारिक के सहयोग से ही वैक्रिय मिश्र काययोग माना है। भवधारणीय वैक्रिय शरीर के साथ उत्तर वैक्रिय शरीर के पुद्गलों के सम्मिश्रण को वैक्रियमिश्र काय योग नहीं माना है । इसीलिए देव नरक के पर्याप्तों में वैक्रिय मिश्र काय योग नहीं बताया है । प्रज्ञापना सूत्र के १६ वें प्रयोग पद में वैक्रिय का वैक्रिय के साथ ही मिश्रण होने के कारण देव नरक के पर्याप्त अवस्था में भी वैक्रिय मिश्र काय योग माना है। . ४७ प्रश्न-जइ आहारगसरीरकायप्पयोगपरिणए किं मणुस्साहारगसरीरकायप्पयोगपरिणए, अमणुस्साहारग जाव परिणए ? ___४७ उत्तर-एवं जहा "ओगाहणसंठाणे" जाव इड्ढिपत्तपमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपजत्तगसंखेजवासाउय जाव परिणए, णो अणिड्ढिपतपमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपजत्तसंखेजवासाउय जाव परिणए । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy