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भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम
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४८ प्रश्न-जइ आहारगमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए किं मणुस्साहारगमीसासरीर० ?
४८ उत्तर-एवं जहा आहारगं तहेव मीसगं पि गिरवसेसं भाणियव्वं । कठिन शब्दार्थ-इडिपत्तपमत्तसंजय-ऋद्धि प्राप्त प्रमत्त संयत, अणिपित्त-ऋद्धि अप्राप्त।
भावार्थ-४७ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य आहारक-शरीर काय प्रयोगपरिणत होता है, तो क्या मनुष्य आहारक-शरीर काय-परिणत होता है, अथवा अमनुष्याहारक शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है ? __ ४७ उत्तर-हे गौतम ! इस विषय में प्रज्ञापना सूत्र के इक्कीसवें 'अवगाहना संस्थान' पद में जिस प्रकार कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये । यावत् ऋद्धि प्राप्त प्रमत-संयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्येय-वर्षायुष्क मनुध्याहारक-शरीर काय प्रयोग-परिणत होता है, परन्तु अनृद्धि प्राप्त प्रमत्तसंयत • सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क मनुष्याहारक-शरीर काय प्रयोग-परिणत नहीं होता।
३८ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य आहारक-मिश्र-शरीर काय-प्रयोगपरिणत होता है, तो क्या मनुष्याहारक-मिश्र-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है, अथवा. अमनुष्याहारक-मिश्र-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है ?
४८ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार आहारक-शरीर काय-योग-परिणत के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार आहारक-मिश्र-शरीर काय-प्रयोग-परिणत के विषय में भी कहना चाहिये। .
विवेचन-(५) आहारक-काय-योग = केवल आहारक शरीर की सहायता से होने वाला वीर्यशक्ति का व्यापार 'आहारक काय-योग' होता है।
(६) आहारक-मिश्र-काययोग = आहारक और औदारिक इन दोनों शरीरों के द्वारा होने वाले वीर्य-शक्ति के व्यापार को आहारक-मिश्र काय-योग कहते हैं । आहारक शरीर के धारण करने के समय अर्थात् उसको प्रारम्भ करने के समय तो आहारक-मिश्र-काय-योग
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