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भगवती सूत्र-श. ७. उ. २ मूलात्तर गुण प्रत्याख्यान
(३) अनर्थदण्ड विरमण व्रत-अपध्यान अर्थात् आर्तध्यान, रोद्रध्यान करना, प्रमाद पूर्वक प्रवृत्ति करना, हिंसाकारी शस्त्र देना एवं पापकर्म का उपदेश देना-ये. सभी कार्य 'अनर्थदण्ड है। क्योंकि इनसे निष्प्रयोजन हिंसा होती है । इस अनर्थदण्ड से निवृत्त होना 'अनर्थदण्डविरमण' व्रत है।
(४) सामायिक व्रत-सावद्य-व्यापार का त्याग कर आतंध्यान और रौद्रध्यान को दूर कर, धर्मध्यान में आत्मा को लगाना और मनोवृत्ति को समभाव में रखना-सामायिकव्रत है। एक सामायिक काल, दो घडी अर्थात् एक मुहूंत (४८ मिनिट) है । सामायिक में बत्तीस दोषों कों वर्जना चाहिये ।
(५) देशावकाशिक व्रत-दिग्वत में दिशाओं का जो परिमाण किया है, उसका तथा पहले के सभी व्रतों का प्रतिदिन संकोच करना, 'देशावकाशिक' व्रत है । मर्यादा के बाहर की दिशाओं में आस्रव का सेवन नहीं करना चाहिये, तथा मर्यादित दिशाओं में जितने द्रव्यों की मर्यादा की है, उसके उपरान्त द्रव्यों का उपभोग न करना चाहिये ।
(६) पौषधोपवास व्रत-एक दिन रात अर्थात आठ प्रहर के लिये-चार आहार, मैथुन, मणि, सुवर्ण तथा आभूषण, पुष्पमाला, सुगन्धित चूर्ण आदि तथा सकल सावध व्यापारों को त्याग कर धर्मस्थान में रहना और धर्म-ध्यान में लीन रहकर शुभभावों से उक्त काल को व्यतीत करना 'पोषधोपवास' व्रत है। इस व्रत में पौषध के अठारह दोषों का त्याग करना . चाहिये।
(७) अतिथिसंविभाग व्रत-पंच-महाव्रतधारी साधुओं को उनके कल्प के अनुसार निर्दोष अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र कम्बल, पादप्रोञ्छन, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, औषध और भेषज-ये चौदह प्रकार की वस्तुएँ निष्काम बुद्धिपूर्वक, आमकल्याण की भावना से देना तथा दान का संयोग न मिलने पर सदा ऐसी भावना रखना-अतिथिसंविभाग व्रत' है।
दिग्वत, उपभोग परिभोग परिमाणवत, अनर्थदण्डविरमण व्रत, इनको 'गुणवत' भी कहते हैं । सामायिक व्रत; देशावकाशिक व्रत, पौषधोपवास व्रत और अतिथिसंविभाग व्रत, इनको 'शिक्षावत' कहते हैं।
- अपश्चिममारणान्तिकसंलेखना:-यद्यपि आवीचि-मरण की दृष्टि से सभी प्राणियों का प्रतिक्षण मरण हो रहा है, किन्तु यहां उस मरण की विवक्षा नहीं की गई । परन्तु सम्पूर्ण आयु की समाप्तिरूप मरण की विवक्षा की गई है । अपश्चिम अर्थात् जिसके पीछे कोई कार्य करना शेष न रहा हो, उसे 'अपश्चिम' कहते हैं । अन्तिम मरण के समय शरीर
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