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भगवतो सूत्र-श. ७ उ. २ प्रत्यात्यानी अप्रत्याख्यानी :
और कषायादि को कृश करने वाला तप विशेष 'अपश्चिम-मारणान्तिक-सलेखना' कहलाती है । उसके सेवन की आराधना अखण्ड काल तक करना 'अपश्चिममारणान्तिक-संलेखनाजोषणा आराधना' कहलाती है।
यहाँ दिग्वतादि सात देशोत्तरगुण कहे गये हैं। सलेखना को भजना (विकल्प) से देशोतरगुण समझना चाहिये, क्योंकि आवश्यक में ऐसा कहा गया है कि यह संलेखना देशोत्तर गुणवाले के लिये देशोत्तरगुणरूप है और सर्वोत्तरगुण वाले के लिये सर्वोत्तरगुणरूप है। देशोतरगुण वाले को भी अन्तिम समय में यह अवश्य करनी चाहिये, यह बात सूचित करने के लिये इसका कथन देशोत्तर गुणों के साथ किया गया है।
प्रत्याख्यानी अप्रत्याख्यानी
९ प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं मूलगुणपञ्चक्खाणी, उत्तरगुणपचाखाणी, अपचक्खाणी ?
९ उत्तर-गोयमा ! जीवा मूलगुणपञ्चक्खाणी वि, उत्तरगुणपवाखाणी वि, अपच्चरखाणी वि।
१० प्रश्न-णेरइया णं भंते ! किं मूलगुणपञ्चक्खाणी-पुच्छा ।
१० उत्तर-गोयमा ! णेरइया णो मूलगुणपञ्चक्खाणी, णो उत्तरगुणपञ्चक्खाणी, अपचक्खाणी; एवं जाव चरिंदिया, पंचिं. दियतिरिक्खजोणिया मणुप्सा य जहा जीवा, वाणमंतर-जोइसियवेमाणिया जहा णेरइया ।
. भावार्थ- प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव, मूलगुणप्रत्याख्यानी है, उत्तरगुगप्रत्याख्यानी है, या अप्रत्याख्यानी है ?
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