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भगवती सूत्र-श. ७ उ. २ मूलोत्तर गुण प्रत्याख्यान
अर्थ-दत्ति (दात), कवल (ग्रास), घर, भिक्षा या भोजन के द्रव्यों की मर्यादा करना 'परिमाणकृत' प्रत्याख्यान है।
(८) निरवशेष सव्वं असणं सव्वं च पाणगं सम्वलज्जपेज्जविहि ।
परिहरइ सम्वभावेणेयं मणियं निरवसेसं ॥१॥ .., अर्थ-अशन, पान, खादिम और स्वादिम चारों प्रकार के आहार का सर्वथा त्याग करना-निरवशेष प्रत्याख्यान हैं।
(९) संकेत प्रत्याख्यान अंगुटुमुढिगंठीघर सेऊसास थिबुगजोइक्खें ।
मणियं संकेयमेयं धीरेहि अणतणाणिहि ।।१।। . अर्थ-अंगठा, मुट्ठी, गांठ आदि के चिन्ह को लेकर जो प्रत्याख्यान किया जाता . है, उसे 'संकेत प्रत्याख्यान' कहते हैं।
(१०) अद्धा प्रत्याख्यान अदापच्चक्खाणं जंतं कालप्पमाणछेएणं।
पुरिमड्डपोरसीहि मुहुत्तमासद्धमासेहिं ॥१॥.. .. - अर्थ-अद्धा अर्थात् काल को लेकर जो प्रत्याख्यान किया जाता है, जैसे पोरिसी, दोनोरिमी, अद्धमाप, मास आदि, उसे 'अद्धा-प्रत्याख्यान' कहते हैं। __.. देशोत्तर-गुण प्रत्याख्यान के सात भेद बतलाये गये हैं । यथा-(१) दिग्वत-पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊपर, नीचे, इन छह दिशाओं की मर्यादा करना एवं नियमित दिशा से आगे आश्रवसेवन का त्याग करना-'दिग्व्रत' या 'दिशिपरिमाणवत' कहलाता है। :
(२) उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रत-भोजनादि जो एक बार भोगने में आते हैं, वे 'उपभोग' हैं और बार बार भोगे जाने वाले वस्त्र, शय्या आदि 'परिभोग' है + । उपभोग परिभोग योग्य वस्तुओं का परिमाण करना छब्बीस बोलों की मर्यादा करना एवं मर्यादा के उपरान्त उपभोग परिभोग योग्य वस्तुओं के भोगोपभोग का त्याग करना 'उपभोगपरिभोग परिमाण व्रत' है।
+ उपभोग परिभोग शब्दों का अर्थ उपासकदशांग सूत्र अध्ययन १ में इस प्रकार भी किया हैबारवार भोग जाने वाले पदार्थ 'उपभोग' और एक ही बार भोगे जाने वाले पदार्थ परिभोग' है।
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