________________
भगवती सूत्र - स. ७ उ. २ मूलोत्तर गुण प्रत्याख्यान
तपस्या नहीं कर सका, वह यदि वाद में वहीं तप करे, तो उसे 'अतिक्रान्तप्रत्याख्यान' कहते हैं ।
(३) कोटि सहित
पटुवणओ उ दिवसो पच्चक्खाणस्स निट्ठवणओ य । महियं समेति दोणि उ तं भण्णइ कोडीसहियं तु ॥ | १
||
अर्थ —–जहाँ एक प्रत्याख्यान की समाप्ति तथा दूसरे प्रत्याख्यान का प्रारम्भ एक ही दिन में हो जाय, उसे कोटि-सहित प्रत्याख्यान कहते हैं। जैसे कि उपवास के पारणे में आयम्बिल आदि तप करना ।
(४) नियन्त्रित
मासे मासे य तवो अमुगो अमुगे दिणम्मि एवइयो । हट्ठेण गिलाण व कायव्वो जाव ऊसासो || १ || एयं पच्चक्खाणं नियंटियं धीरपुरिसपण्णसं । ज गेव्हंत अणगारा अणिस्तियप्पा अपडिबद्धा ॥२॥
अर्थ- जिस दिन जो प्रत्याख्यान करने का निश्चय किया है, उसी दिन उसे नियम पूर्वक करना, बीमारी आदि की बांधा आने पर भी उसे नहीं छोड़ना-नियन्त्रित प्रत्यास्थान है। प्रत्येक मास में जिस दिन जितने काल के लिये जो तप अंगीकार किया है, उसे अवश्य करना, रोग आदि बाधाएँ उपस्थित होने पर भी प्राण रहते उसे नहीं छोड़ना नियन्त्रित प्रत्याख्यान है ।
Jain Education International
१११७
(५) साकार ( सागार) प्रत्याख्यान - जिस प्रत्याख्यान में कुछ आगार अर्थात् अपवाद रखा जाय, उन आगारों में से किसी के उपस्थित होने पर त्यागी हुई वस्तु त्याग का समय पूरा होने से पहले भी काम में ले ली जाय तो प्रत्याख्यान नहीं टूटता । जैसे कि नवकारसी, पोरिसी आदि प्रत्याख्यानों में अनाभोग आदि आगार हैं ।
(६) अनाकार (अनागार ) प्रत्याख्यान - जिस प्रत्याख्यान में 'महत्तरागार' आदि आगार न हों। ( अनाभोग और सहसाकार तो उसमें भी होते हैं, क्योंकि मुंह में अगुंली आदि के अनुपयोग पूर्वक पड़ जाने से आगार न होने पर प्रत्याख्यान के टूटने का डर है ।) (७) परिमाण-कृत
बत्ती हिं व कवलेहि व घरेहि भिक्खाहि अहव बहि । जो मतपरिच्चायं करेह परिमाणकडमेयं ॥१॥
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org