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भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप
उद्देशक १
पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप
२ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-कइविहा णं भंते ! पोग्गला पण्णता ?
२ उत्तर-गोयमा ! तिविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा-पओगपरिणया, मीससापरिणया, वीससापरिणया य । ... कठिन शब्दार्थ--पओगपरिणया--प्रयोग परिणत, मीससा परिणया--मिश्र परिणत, बीससा--विस्रसा (स्वाभाविक)।
भावार्थ-२ प्रश्न-राजगृह नगर में यावत् गौतम, स्वामी ने इस प्रकार पूछा-'हे भगवन् ! पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ?' ...
२ उत्तर-हे. गौतम ! पुद्गल तीन प्रकार के कहे गये हैं। यथा-प्रयोगपरिणत, मिश्र-परिणत, और विस्रसा-परिणतं ।
विवेचन--जीव के व्यापार (क्रिया) से शरीर आदि रूप में परिणत पुद्गल'प्रयोगपरिणत' कहलाते हैं। प्रयोग और विस्रसा (स्वभाव) इन दोनों द्वारा परिणत पद्गल-'मिश्रपरिणत' कहलाते हैं । विसमा अर्थात् स्वभाव से परिणत पुद्गल-'विस्रसा परिणत' कहलाते हैं । प्रयोगपरिणाम को छोड़े विना स्वभाव से परिणामान्तर को प्राप्त हुए, मृत-कलेवरादि पुद्गल ‘मिश्र-परिणत' कहलाते हैं । अथवा विस्रसा (स्वभाव) से परिणत औदारिक आदि वर्गणाएँ, जब जीव के व्यापार प्रयोग (क्रिया) से औदारिकादि शरीर रूप में परिणत होती हैं, तब वे 'मिश्रपरिणत' कहलाती हैं । यद्यपि औदारिकादि गरीर रूप से परिणत औदारिकादि वर्गणाएँ 'प्रयोगपरिणत' कहलाती हैं क्योंकि उस समय उन में वित्र सा परिणाम की विवक्षा नहीं की गई है, परन्तु जब प्रयोग और विनसा इन दोनों परिणामों की विवक्षा की जाती है, तब वे 'मिश्रपरिणत' कहलाती हैं।
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