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१३९८ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ६ दूसरों के लिए प्राप्त पिण्ड का उपभोग
कठिन शब्दार्थ - पडिग्गह — पात्र, गोच्छय-- गुच्छक ( पात्र पोंछने का कपड़ा) रथहरण -- रजोहरण (ओघा) चोलपट्टक - - चोलपट्टा, संथारंग - संस्तारक ( बिछौना) ।
भावार्थ - ६ कोई साधु, गृहस्थ के घर गोचरी के लिये जाय । वहाँ वह गृहस्थ, दो पात्र बहरावे और ऐसा कहे कि - ' हे आयुष्मन् श्रमण ! इन दो पात्रों में से एक पात्र का उपयोग आप स्वयं करना और दूसरा पात्र, स्थविर मुनियों को देना ।' तो उन दोनों पात्रों को ग्रहण कर अपने स्थान पर आवे यावत् सारा वर्णन पूर्वोक्त रूप से कहना । उस दूसरे पात्र का उपयोग आप स्वयं न करे और न वह दूसरों को बे, किंतु यावत् उसको परठ दे। इसी प्रकार तीन, चार यावत् दस पात्र तक का कथन पूर्वोक्त पिंड के समान कहना चाहिये। जिस प्रकार पात्र की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार गुच्छक, रजोहरण, चोलपट्ट, कम्बल, दण्ड और संस्तारक की वक्तव्यता कहनी चाहिये । यावत् परठ दे- यहां तक कहना चाहिये ।
विवेचन -- यहाँ यह कथन किया गया है कि जो पिण्ड, पात्र आदि स्थविर मुनियों के निमित्त से दिये गये हैं, उनका उपयोग वह मुनि स्वयं नहीं करे और न वह दूसरों को दे, क्योंकि गृहस्थ ने स्थविर मुनियों का नाम लेकर दिया है। इसलिये उस पिण्ड पात्रादि का उपयोग स्वयं करे, या दूसरों को दे, तो उस मुनि को अदत्तादान लगता है । इसलिये वह उसे अचित्तादि विशेषण विशिष्ट स्थण्डिल भूमि की प्रतिलेखना और प्रमार्जना करके वहाँ परठ दे | कैसे स्थण्डिल में परठे, इसके लिये कहा गया है कि ;
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अणावायमसंलोए, अणावाए चेव होइ संलोए । आवायमसंलोए, आवाए चेव होइ संलोए ।। १ ॥ अणावामसंलोए, परस्सऽणुवधाइए ।
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समे असिरे यावि, अचिरकालकयम्भि य ॥ २ ॥ वित्थिष्णे दूरमोगाढे, नासणे बिलवज्जिए । तसपाण बीयरहिए, उच्चाराईणि वोसिरे ॥ ३ ॥
अर्थ- स्थण्डिल के दस विशेषणों में से प्रथम विशेषण के चार भंग करके बतलाये जाते हैं - १ जहां कोई आता भी न हो और देखता भी न हो, २ जहाँ आता तो कोइ नहीं,
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