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भगवती सूत्र - ८ उ. ६ दूसरों के लिए प्राप्त पिण्ड का उपभोग १३९७
गवेषणा करने पर वे स्थविर मुनि मिल जाय, , तो वह पिण्ड उन्हें दे दे । गवेषणा करने पर भी यदि वे नहीं मिलें, तो उस पिण्ड को न तो आप खावे न दूसरों को देवे । किन्तु एकान्त और अनापात, अचित्त, बहुप्रासुक स्थण्डिल स्थान को प्रतिलेखना और प्रमार्जना करके वहाँ परठ दे ।
५- कोई साधु, गृहस्थ के घर गोचरी जाय । वहाँ गृहस्थ उसे तीन पिण्ड ( तीन रोटी अथवा तीन लड्डू आदि कोई वस्तु ) देवे और ऐसा कहे कि 'हे आयुष्मन् श्रमण ! इन तीन पिण्डों में से एक पिंड तो आप खाना और दो पिंड स्थविर मुनियों को देना ।' फिर वह मुनि उन पिंडों को लेकर अपने स्थान पर आवे । वहाँ आकर स्थविर मुनियों की गवेषणा करे। यदि वे मिल जाय, तो वे दो पिंड उन्हें दे दे । यदि वे नहीं मिलें, तो उन दो पिंडों को आप स्वयं नहीं खावे और न दूसरों को दे, किंतु पूर्वोक्त विशेषण युक्त स्थण्डिल भूमि की प्रतिलेखना व प्रमार्जना करके परठ दे। इसी प्रकार चार, पांच, छह यावत् दस पिंड तक के विषय में कहना चाहिये। उनमें से एक पिंड स्वयं ग्रहण करने के लिये तथा शेष पिंड स्थविर मुनियों को देने के लिये कहे, इत्यादि कथन करना चाहिये । शेष सारा वर्णन पूर्वोक्त प्रकार से कहना चाहिये ।
६ णिग्गंथं च णं गाहावइ० जाव के दोहिं पडिग्गहे हिं उवणिमंतेजा - एगं आउसो ! अप्पणा परिभुंजाहि, एगं थेराणं दलयाहि । से य तं पडिग्गाहेज्जा, तहेव जाव तं णो अप्पणा परिभुंजेजा, णो अण्णेसिं दावए; सेसं तं चेव, जाव परिट्ठावेयव्वे सिया । एवं जाव दसहिं पडिग्गा हेहिं, एवं जहा पडिग्गहवत्तव्वया भणिया, एवं गोच्छयरयहरण- चोलपट्टग- कंबल लट्ठि- संथारगवत्तव्वया य भाणियव्वा, जाव दसहिं संथारएहिं उवणिमंतेज्जा, जाव परिट्ठावेयव्वे सिया ।
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