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भगवती मूत्र-7. ८ उ. १० आराधकों के शेष भव
११ उत्तर-गोयमा ! अस्थंगड़ए दोच्चेणं भवग्गहणेणं सिइइ, जाव अंतं करेइ, तच्चं पुण भषग्गहणं णाइक्कमइ।
१२ प्रश्न-मज्झिमियं णं भंते ! दंसणाराहणं आराहत्ता ? १२ उत्तर-एवं चेव, एवं मज्झिमियं चरित्ताराहणं पि ।
१३ प्रश्न-जहणियं णं भंते ! णाणाराहणं आराहेत्ता काहिं भवग्गहणेहिं सिज्झइ, जाव अंतं करेइ ?
१३ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए तन्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झइ, जाव अंतं करेइ; सत्त-ट्ट भवग्गहणाई पुण गाइक्कमइ । एवं देसणाराहणं पि, एवं चरित्ताराहणं पि । : कटिन शब्दार्थ-अत्थेगइए-कितने ही, णाइक्कमइ-अतिक्रमण नहीं करते ।
भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञान की उत्कृष्ट आराधना करके जीव कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होता है, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है ?
८ उत्तर-हे गौतम ! कितने ही जीव, उसी भव में सिद्ध हो जाते हैं, यावल सभी दुःखों का अन्त कर देते हैं। कितने ही जीव दो भवग्रहण करके सिद्ध होते है यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। कितने ही जीव कल्पोपपन्न देवलोकों में अथवा कल्पातीत देवलोकों में उत्पन्न होते हैं।
९ प्रश्न-हे भगवन् ! दर्शन को उत्कृष्ट आराधना करके जीव कितने भवग्रहण करके सिद्ध होता है यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है ?
. ९ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार उत्कृष्ट ज्ञान आराधना के विषय में कहा, उसी प्रकार उत्कृष्ट दर्शन आराधना के विषय में भी कहना चाहिए।
१० प्रश्न-हे भगवन् ! उत्कृष्ट चारित्र आराधना करके जीव कितने भव
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