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________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. १० अग्नि के जलाने की क्रिया १२२५ बाद जब उसका परिणमन होता है, तब वह सुरूपपने, सुवर्णपने यावत् सुखपने बारंबार परिणत होता है, वह दुःखपने परिणत नहीं होता। इसी प्रकार हे कालोदायिन् ! जीवों के लिये प्राणातिपात-विरमण यावत् परिग्रह-विरमण, क्रोधविवेक (क्रोध का त्याग) यावत् मिथ्यादर्शनशल्य का त्याग, प्रारंभ में कठिन लगता है, किन्तु उसका परिणाम सुखरूप यावत् नो दुःखरूप होता है। इसी प्रकार हे कालोदायिन् ! जीवों के कल्याणफल-विपाक संयुक्त कल्याण-कर्म होते हैं। विवेचन-कालोदायी ने पाप पुण्य विषयक प्रश्न भगवान् से पूछे । भगवान् ने फरमाया कि जिस प्रकार सभी तरह से सुसंस्कृत विषमिश्रित भोजन खाते समय तो अच्छा लगता है, किन्तु जब उसका परिणमन होता है, तब बड़ा भयङ्कर होता है और यहाँ तक कि प्राणों से हाथ धोना पड़ता है। यही बात प्राणातिपातादि पापकर्मों के लिये है । पापकर्म करते समय तो जीव को अच्छे लगते हैं, किन्तु भोगते समय महा दुःखदायी होते हैं । औषधि युक्त भोजन करने में बड़ी कठिनाई होती है । उस समय उसका स्वाद अच्छा नहीं लगता, किन्तु उसका परिणमन बड़ा अच्छा, सुखकारी और हितकारी होता है । इसी प्रकार प्राणातिपातादि पापों से निवृत्ति बड़ी कठिन लगती है, किन्तु उनका परि. णाम बड़ा हितकारी और सुखकारी होता है। अग्नि के जलाने बझाने की क्रिया .९ प्रश्न-दो भंते ! पुरिसा सरिसया जाव सरिसभंडमत्तोवगरणा अण्णमण्णेणं सदधि अगणिकायं समारंभंति, तत्थ णं एगे पुरिसे अगणिकायं उन्नालेइ, एगे पुरिसे अगणिकायं णिवावेह, एएसि णं भंते ! दोण्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्मतराए चेव, महाकिरियतराए चेव, महासवतराए चेव, महावेयणतराए चेव ? कयरे वा पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव, जाव अप्पवेयणतराए चेव ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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