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________________ १४०० भगवती सूत्र-श. ८ उ. ६ अकृत्यसेवी आराधक ? ७ उत्तर-गोयमा ! आराहए, णो विराहए । ८ प्रश्न-से य संपट्ठिए असंपत्ते अप्पणा य पुवामेव अमुहे सिया, से णं भंते ! किं आराहए, विराहए ? ८ उत्तर-गोयमा ! आराहए, णो विराहए। ९ प्रश्न-से य संपट्ठिए असंपत्ते थेरा य कालं करेजा, से णं भंते ! किं आराहए, विराहए ? ९ उत्तर-गोयमा ! आराहए, णो विराहए। १० प्रश्न-से य संपट्ठिए असंपत्ते अप्पणा य पुव्वामेव कालं करेजा, से णं भंते ! किं आराहए, विराहए ? १० उत्तर-गोयमा ! आराहए, णो विराहए। . ११ प्रश्न-से य संपट्ठिए संपत्ते, थेरा य अमुहा सिया से णं. भंते ! किं आराहए, विराहए ? ११ उत्तर-गोयमा ! आराहए, णो विराहए । से य संपद्विए संपत्ते, अप्पणा य०-एवं संपत्तेण वि चत्तारि आलावगा भाणियव्वा जहेव असंपत्तेणं। कठिन शब्दार्थ-अकिञ्चट्ठाणे-अकृत्य स्थान ( मूल गुणादि में दोष सेवन रूप अकार्य विशेष )पडिसेविए-प्रतिसेवन किया, विउट्टामि--तोड़ दूं ( उसके अनुबन्ध का छेदन कर दूं) विसोहेमि-मैं विशुद्ध करूं, अन्मठेमि-तत्पर वनूं, अहारिहं-यथार्ह-यथोचित, पतिवज्जामिस्वीकार करूं, संपट्ठिए-पहुंचने, अमुहा-अमुखा अर्थात् जिनकी जिव्हा बन्द हो गई हो । . भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! कोई साधु, गाथापति (गृहस्थ) के घर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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