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भगवती सूत्र-श. ८ उ. ६ कार्मण शरीर प्रयोग बन्ध
जो कारण बतलाये गये हैं, उनमें ज्ञान और ज्ञानीपुरुष तथा दर्शन और दर्शनीपुरुष की प्रत्यनीकता (प्रतिकूलता) आदि समझना चाहिये । अर्थात् ज्ञान और ज्ञानी की प्रत्यनीकता आदि कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म बंधता है । इसी प्रकार दर्शन और दर्शनी पुरुष की प्रत्यनीकता आदि से दर्शनावरणीय कर्म बंधता है । ज्ञान प्रत्यनीकता आदि छह कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म बंधता है और दर्शन प्रत्यनीकता आदि छह कारणों से दर्शनावरणीय कर्म बँधता है। साता-वेदनीय कर्म दस प्रकार से और असातावेदनीय कर्म बारह प्रकार से बंधता है । मोहनीय कर्म, तीव्र क्रोधादि छह कारणों से बँधता है । आयुष्य कर्म के चार भेद हैं । उनमें से नरकायु महारम्भ, महापरिग्रह पंचेन्द्रिय वध और मांसाहार-इन चार कारणों से बँधता है । माया करने से, गूढ माया करने से, असन्य बोलने से और खोटा तोल-माप करने से तिर्यञ्चायु का बंध होता है। प्रकृति की भद्रता से, प्रकृति की विनीतता से, दया-भाव रखने से और अमत्सर-भाव से मनुष्याय का बन्ध होता है। सरागसंयम, देशसंयम, बालतप और अकाम-निर्जरा से देवायु का बन्ध होता है । शुभ नाम-कर्म चार कारणों से और अशुभ नाम-कर्म चार कारणों से बंधता है । जाति, कुल, बल आदि आठ बातों का मद करने से नीचगोत्र बँधता है । और इन आठ बातों का मद नहीं करने से उच्च गोत्र बंधता है। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में अन्तराय डालने से अन्तराय कर्म बंधता है।
ज्ञानावरणीय आदि आठों कर्मों का देशबन्ध होता है, सर्वबन्ध नहीं । देशबन्ध के अनादि अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित ये दो भेद हैं । इन दोनों का अन्तर नहीं है ।
- अल्प-बहुत्व:-आयु कर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के अबन्धक जीव सब से थोड़े हैं । और उनसे देशबन्धक अनन्त गुण हैं । आयुष्य कर्म के देशबन्धक सब से थोड़े हैं और अबन्धक उनसे संख्यात गुण है। क्योंकि आयुष्य बन्ध का समय बहुत थोड़ा है और अबन्ध का समय उससे बहुत गुणाधिक है।
शंका-आयु-बन्ध समय की अपेक्षा अबंध का समय बहुत गुण अधिक है, तो फिर आयुष्य-कर्म के अबंधक असंख्यात गुण क्यों नहीं कहे गये ? क्योंकि अबंध का समय असंल्यात जीवितों अपेक्षा असंख्यात गुण है। .
समाधान-उपरोक्त सूत्र अनन्त-कायिक जीवों की अपेक्षा है । वहाँ अनन्त-कायिक जीव संख्यातजीवित ही हैं, उनमें आयुष्य के अबंधक देश-बंधकों से संख्यात गुण ही होते
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