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भगवती सूत्र - ८ उ. २ आशीविष
विसेणं विसपरिगयं, सेसं तं चैव जाव करिस्संति वा । मणुस्सजाइआसी विसस्स वि एवं चेव, णवरं समयखेत्तप्पमाणमेत्तं बादिं विसेणं विसपरिगयं, सेसं तं चैव जाव करिस्संति वा ।
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कठिन शब्दार्थ - - आसोविस -- आशीविष (प्राणियों की दाढ़ा में होने वाला विष) बोंदि --शरीर को, पभू --समर्थ, विसेणं-- विष से, विसपरिगथं - विष से व्याप्त, विसट्टमाण - विकसित होता हुआ, संपत्तीए - सम्प्राप्ति से ।
भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! आशीविष कितने प्रकार का कहा गया है ? १ उत्तर - हे गौतम ! आशीविष दो प्रकार का कहा गया है । यथाजाति- आशीविष और कर्म आशीविष ।
२ प्रश्न - हे भगवन् ! जाति आशीविष कितने प्रकार का कहा गया है ? २ उत्तरर-- हे गौतम ! वह चार प्रकार का कहा गया है । यथा१ वृश्चिक - जाति आशीविष, २ मण्डूक-जाति- आशीविष, ३ उरग-जाति-आशी• विष और ४ मनुष्य जाति आशीविष ।
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३ प्रश्न - हे भगवन् ! वृश्चिक-जाति- आशीविष का कितना विषय कहा गया है, अर्थात् वृश्चिकजाति आशीविष का सामर्थ्य कितना है ?
३ उत्तर - हे गौतम ! वृश्चिक जाति आशीविष अर्द्ध भरत क्षेत्र प्रमाण शरीर को विषयुक्त एवं विष से व्याप्त करने में समर्थ है। यह उस विष का सामर्थ्य मात्र है, परन्तु सम्प्राप्ति द्वारा अर्थात् क्रियात्मक प्रयोग द्वारा उसने ऐसा कभी किया नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं ।
४ प्रश्न - हे भगवन् ! मण्डूकजाति - आशीविष का विषय कितना है ? ४ उत्तर - हे गौतम! मण्डूकजाति - आशीविष अपने विष द्वारा भरतक्षेत्र प्रमाण शरीर को व्याप्त कर सकता है । यह उसका सामर्थ्य मात्र है, परन्तु सम्प्राप्ति द्वारा उसने ऐसा कभी किया नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं । उरगजाति- आशीविष जम्बूद्वीप प्रमाण शरीर को अपने विष द्वारा व्याप्त
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