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भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप
चौथा दण्डक जे अपजत्तामुहुमपुढविक्काइय-एगिदिय-पयोग-परिणया ते फासिदियप्पयोगपरिणया । जे पन्जतासुहुमपुढविक्काइय० एवं चेव । जे अपज ताबायरपुढविस्काइय० एवं चेव, एवं पजत्तगा वि । एवं चउक्कएणं भेएणं जाव वणस्सइकाइया । जे अपजत्तावेइंदियपयोगपरिणया ते जिभिदियफासिंदियपयोगपरिणया, जे पजत्ताबेइंदिय० एवं चेव, एवं जाव चरिंदिया; णवरं एक्केक्कं इंदियं वड्ढेयध्वं, जाव अपजत्तरयणप्पभापुढविणेरइयपंचिंदियपयोगपरिणया ते सोइंदिय-चक्विदिय-घाणिंदिय-जिभिदिय-फासिंदियपओगपरिणया । एवं पजत्तगा वि, एवं सब्वे भाणियव्या तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवा, जाव जे पजतासम्वमिद्धअणुत्तरोववाइअ० जाव परिणया ते सोइंदिय-वक्खिदिय० जाव परिणया । (दं. ४)
कठिन शब्दार्थ - वड्यन्वं-बढ़ानी चाहिये।
भावार्थ-जो पुद्गल अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं । जो पुद्गल पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे भो स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं। इसी प्रकार अपर्याप्त बादर पथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग-परिणत और पर्याप्त बादर पथ्वी. कायिक एकेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे भी स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं। इसी प्रकार वनस्पतिकायिक तक सूक्ष्म, वादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, ये चारों भेद कहना चाहिये। ये सभी स्पर्शनेंद्रिय प्रयोग-परिणत हैं । जो पुद्गल अपर्याप्त बेइंद्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे जिव्हेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं। इसी
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