________________
१४२०
भras
-.८ उ. ७ अन्य-तीथिक और स्थविर संवाद
प्रकार कहा कि-हे आर्यों ! हम अदत्त का ग्रहण नहीं करते, अदत्त आहार नहीं करते और अदत्त को अनुमति भी नहीं देते ।' 'हे आर्यों ! हम दत्त (स्वामी द्वारा दिये हुए)-ार्थ को ग्रहण करते हैं, दत्त का आहार करते हैं और दत्त की अनुमति देते हैं। इसलिए दत्त का ग्रहण करते हुए, दत्त का आहार करते हुए और दत्त की अनुमति देते हुए हम त्रिविध-विविध संयत, विरत, प्रतिहत-प्रत्याख्यातपापकर्म वाले हैं। इस प्रकार सातवें शतक के दूसरे उद्देशक में कहे अनुसार यावत् हम एकांत पंडित है।'
८-तब उन अन्यतोथिकों ने उन स्थविर भगवंतों से इस प्रकार कहा'हे आर्यों ! तुम किस प्रकार दत्त का ग्रहण करते हो, यावत् दत्त की अनुमति देते हो, जिससे दत्त का ग्रहण करते हुए यावत् तुम एकांत पण्डित हो ?'
९-तब उन स्थविर भगवंतों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा'हे आर्यो ! हमारे सिद्धान्त में-दिया जाता हा पदार्थ 'दिया गया,' ग्रहण किया जाता हुआ 'ग्रहण किया गया' और पात्र में डाला जाता हुआ 'डाला गया' कहलाता है । इसलिये हे आर्यों ! हमको दिया जाता हुआ पदार्थ जब तक हमारे पात्र में नहीं पड़ा है, तब तक बीच में ही कोई व्यक्ति उसका अपहरण करले, तो वह पदार्थ हमारा अपहृत हुमा कहलाता है, किन्तु बह गृहस्थ का पदार्थ अपहृत हुआ-ऐसा नहीं कहलाता । इमलिये हम दत्त का ग्रहण करते हैं, दत्त का आहार करते है और दत्त की अनुमति देते हैं। इस प्रकार दत्त का ग्रहण करते हुए यावत् दत्त की अनुमति देते हुए हम त्रिविध, त्रिविध संयत यावत् एकांत पंडित हैं । हे आर्यो ! तुम स्वयं त्रिविध-त्रिविध असंयत यावत् एकांत बाल हो।
१०-तएणं ते अण्णउत्थिया ने धेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो ! अम्हे तिविहं जाव एगंतवाला यावि भवामो ?
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org