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भगवती सूत्र-श. ८ उ. १० कर्मों का पारस्परिक संबंध
दण्डक कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिये और यावत् अन्तराय कर्म पर्यन्त कहना चाहिये । परन्तु वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्रइन चार कर्मों के विषय में जिस प्रकार नरयिक जीवों के लिये कथन किया है, उसी प्रकार मनुष्यों के लिये कहना चाहिये । शेष सब वर्णन पहले के समान कहना चाहिये।
विवेचन-केवलज्ञानी की प्रज्ञा के द्वारा भी जिसके विभाग न किये जा सकें, ऐसे सूक्ष्म अंश (निरंश अंश) को 'अविभागपरिच्छेद' कहते हैं । वे कर्म स्कन्धों की अपेक्षा, अथवा ज्ञान के जितने अविभागपरिच्छेदों का आच्छादन किया हो, उनकी अपेक्षा अनन्त हैं ।
औधिक जीव-सूत्र में जो यह कहा गया है कि 'उसका जीव-प्रदेश ज्ञानावरणीय द्वारा कदाचित् आवेष्टित परिवेष्टित होता है और कदाचित् नहीं होता। यह 'आवेष्टित परिवेष्टित न होने की बात केवली की अपेक्षा कही गई है। क्योंकि उनके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय हो चुका है। इसलिये उनके आत्म-प्रदेश, ज्ञानावरणीय के अविभागपरिच्छेदों द्वारा आवेष्टित परिवेष्टित नहीं होते । इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय के विषय में भी समझना चाहिये । वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र, इन चार अघातिक कर्मों के विषय में मनुष्यपद में कोई अन्तर नहीं पड़ता। क्योंकि ये चारों कर्म छद्मस्थों के भी होते हैं और केवलियों के भी होते हैं । सिद्ध भगवान् में नहीं होते । इसलिये जीव-पद में ही इस विषयक भजना है, मनुष्य-पद में नहीं।
कर्मों का पारस्परिक सम्बन्ध
३१ प्रश्न-जस्स णं भंते ! णाणावरणिजं तस्स दरिसणावरणिजं; जस्स दंसणावरणिजं तस्स णाणावरणिजं ?
३१ उत्तर--गोयमा ! जस्स णं णाणावरणिजं तस्स दंसणावरणिजं णियमं अत्थि, जस्स णं दरिसणावरणिजं तस्स वि णाणावर
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