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भगवती सूत्र-ग. ८ उ. १० कर्म-वर्गणाओं से आबद्ध जीव
जाव वैमाणियस्स; णवरं मणुस्सस्स जहा जीवस्म ।
३० प्रश्न-एगमेगस्स र्ण भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवपएसे दरिसणावरणिज्जस्म कम्मस्स केवइएहिं ? ___३० उत्तर-एवं जहेव णाणावरणिज्जस्स तहेव दंडगो भाणियन्वो जाव वेमाणियस्स; एवं जाव अंतराइयस्स भाणियन्वं; णवरं वेयणिजस्म आउयस्स, णामस्स, गोयस्स-एएसिं चउण्ह वि कम्माणं मणुस्सस्स जहा णेरइयस्स तहा भाणियव्वं, सेसं तं चेव ।
कठिन शब्दार्थ-आवेढिय परिवेढिए—आवेष्टिन-परिवेप्टिन (अन्यन्त गाढ़ रूप से बंधे हुए) जहेव-जिम प्रकार. तहेव-उसी प्रकार । .. भावार्थ-२८ प्रश्न--हे भगवन ! प्रत्येक जीव का प्रत्येक जीव प्रदेश, ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभागपरिच्छेदों से आवेष्टित परिवेष्टित है ?
. २८ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित आवेष्टित परिवेष्टित होता है और कदाचित् नहीं भी होता । यदि आवेष्टित-परिवेष्टित होता है, तो वह नियमा अनन्त अविभागपरिच्छेदों से होता है ।
..२९ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रत्येक नैयिक जीव का प्रत्येक जीव-प्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग परिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित होता है ? - २९ उत्तर-हे गौतम! वह नियमा अनन्त अविभागपरिच्छेदों से आवेष्टित परिवेष्टित होता है । जिस प्रकार नरयिक जीव के विषय में कहा, उसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिये। परन्तु मनुष्य का कथन औधिक (सामान्य) जीव की तरह कहना चाहिये ।
३० प्रश्न-हे भगवन् ! प्रत्येक जीव का प्रत्येक जीव प्रदेश, दर्शनावरणीय कर्म के कितने अविभागपरिच्छेदों द्वारा आवेष्टित परिवेष्टित है ?
३० उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के विषय में
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