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भगवती मूत्र - ग. ७ उ. ९ असंवृत्त अनगार
२ उत्तर-हंता, पभू। - ३ प्रश्न-से भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकुम्वइ तत्थगए पोग्गले परियाहत्ता विकुम्बइ अण्णस्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुम्वइ ?
३ उत्तर-गोयमा ! इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकुम्वइ, णो तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुम्वइ, णो अण्णत्थगए पोग्गले जाव विकुम्वइ । एवं एगवण्णं अणेगरूवं चउभंगो जहा छ?सए णवमे उद्देसए तहा इहा वि भाणियव्वं, णवरं अणगारे इहगयं (ए) इहगए चेव पोग्गले परियाइत्ता विकुब्वइ, सेसं तं चेव, जाव लुक्खपोग्गलं गिद्धपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए ? हंता, पभू । से भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता, जाव णो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुब्वइ ।
कठिन शब्दार्थ-मसंडे-असंवृत्त, (असंयमी-आश्रवसेवी,) परियाइता-ग्रहण करके ।
भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या असंवत (प्रमत्त) अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना एक वर्ण गला, एक रूप वैक्रिय कर सकता है ?
१ उत्तर--गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं।
२ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या असंवत अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके एक वर्ण वाले एक रूप की विक्रिया कर सकता है ?
२ उत्तर-हाँ, गौतम! कर सकता है।
३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वह अनगार, यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विक्रिया करता है, या यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विक्रिया
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