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भगवती सूत्र- श. श. ७ उ. ६ महाशिला कंटक मंग्राम
करता है, या अन्यत्र रहे हुए पुदगलों को ग्रहण करके विक्रिया करता है ?
उत्तर-हे गौतम ! यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विक्रिया (विकुर्वणा) करता है, परन्तु वहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विक्रिया नहीं करता और अन्यत्र रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके भी विक्रिया नहीं करता । इस प्रकार एक वर्ण अनेकरूप, अनेक वर्ण एक रूप और अनेक वर्ण अनेकरूप चौभंगी आदि का कथन जिस प्रकार छठे शतक के नववे उद्देशक में किया गया है, उसी प्रकार यहां भी कहना चाहिये । परन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ रहा हुआ, यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विक्रिया करता है । शेष सारा वर्णन उसी के अनुसार कहना चाहिये, यावत् 'हे भगवन ! क्या रूक्ष पुद्गलों को स्निग्ध पुद्गलपने परिणमाने में समर्थ है ? हां, समर्थ है।' हे भगवन् ! क्या यहां रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके यावत् अन्यत्र रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण किये बिना विक्रिया करता है, वहाँ तक कहना चाहिये।
___ विवेचन—यहाँ 'इहगए' शब्द का अर्थ 'यह मनुष्य लोक' समझना चाहिये, क्योंकि यहां प्रश्नकर्ता गौतम स्वामी हैं, उनकी अपेक्षा, 'इह' शब्द का अर्थ 'यह मनुष्य लोक' ही करना संगत है। 'तत्थगए' का अर्थ है--वैक्रिय बनाकर वह अनगार जहाँ जायेगा वह स्थान । 'अन्नत्थगए' का अर्थ है,--'उपरोक्त दोनों स्थानों से भिन्न स्थान' । तात्पर्य यह है कि जिस स्थान पर रहकर मुनि वैक्रिय करता है, वहां के पुद्गल 'इहगत' कहलाते हैं। वैक्रिय करके जिस स्थान पर जाता है, वहाँ के पुद्गल 'तत्रगत' कहलाते और इन दोनों स्थानों से भिन्न स्थान के पुद्गल 'अन्यत्र गत' कहलाते हैं । देव तो तत्रगत अर्थात् देवलोक में रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके वैक्रिय कर सकता है, किन्तु मुनि तो इहगत अर्थात् मनुष्य लोक में रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके वैक्रिय कर सकता है ।
महाशिला-कंटक संग्राम ४ प्रश्न-णायमेयं अरहया, सुयमेयं अरहया, विण्णायमेयं अर. हया-महासिलाकंटए मंगामे । महासिलाकंटए णं भंते ! संगामे वट्ट
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