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भगवती सूत्र - श. ७ उ १० पाप और पुण्य कर्म और फल
स्वाली (हाण्डी) में पकाने से शुद्ध पका हुआ, विससंमिस्सं-- विष मिला हुआ, आवाए भद्दए- आपात ( तत्काल ) अच्छा, परिणममागे - ( शरीर में - ) रंजने पर ।
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भावार्थ - ५ किसी समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह नगर के गुणशील उद्यान से निकलकर बाहर जनपद (देश) में विचरने लगे । उस काल उस समय में राजगृह नगर के बाहर गुणशील नामक चंत्य था । किसी समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पुनः वहाँ पधारे यावत् धर्मोपदेश सुनकर परिषद् लौट गई । कालोदायी अनगार किसी समय श्रमण भगवान् महावीर के पास आये और भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-
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प्रश्न - हे भगवन् ! क्या जीवों को पापफल-विपाक सहित पापकर्म लगते हैं ? -हाँ, कालोदायिन् ! लगते हैं ।
उत्तर
६ प्रश्न -- हे भगवन् ! पापफल-विपाक सहित पापकर्म कैसे होते है ? ६ उत्तर- - हे कालोदायिन् ! जैसे कोई पुरुष, सुन्दर भाण्ड में पकाने से शुद्ध पका हुआ, अठार प्रकार के दाल-शाकादि व्यञ्जनों से युक्त विष मिश्रित • भोजन करता है, तो वह भोजन प्रारंभ में अच्छा लगता है, परन्तु उसके बाद उसका परिणाम खराब रूपपने, दुर्गन्धपने यावत् छठे शतक के महाश्रव नामक तीसरे उद्देश में कहे अनुसार अशुभ होता है । इसी प्रकार हे कालोदायिन् ! जीव के लिये प्राणांतिवान यावत् मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पाप-स्थान का सेवन तो अच्छा लगता है, किन्तु उनके द्वारा बंधे हुए पापकर्म जब उदय में आते हैं, तब उनका परिणाम अशुभ होता है । इसी प्रकार हे कालोदायिन् ! जीवों के लिये अशुभ फल- विपाक सहित पापकर्म होते हैं ।
७ प्रश्न - अस्थि णं भंते ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा कल्लाणफलविवागमंजुता कजंति ?
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