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भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप
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भावार्थ-जो पुद्गल अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से काला वर्णपने यावत् आयत संस्थानपने भी परिणत हैं। जो पुद्गल पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं। वे भी इसी प्रकार जानना चाहिये । इसी प्रकार अनुक्रम से सभी जानना चाहिये। जिसके जितनी इन्द्रियां हों, उसके उतनी कहनी चाहिये। यावत् जो पुद्गल पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक देव पंचेन्द्रिय श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से काला वर्णपने यावत् आयत संस्थानपने परिणत हैं।
विवेचन-इन्द्रिय वर्णादि विशिष्ट यह आठवाँ दण्डक कहा गया है ।
नौवां दण्डक .
जे अपजत्तासुहमपुढविक्काइयएगिदियओरालिय-तेया-कम्माफासिदियपयोगपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि, जाव आययसंठाणपरिणया वि । जे पजत्तासुहमपुढविक्काइय० एवं चेव । एवं जहाणुपुवीए जस्स जइ सरीराणि इंदियाणि य तस्स तइ भाणियवाणि, जाव जे पजत्तासवट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव देव पंचिंदियवेउब्वियं-तेया कम्मा-सोइंदिय-जाव फासिंदियपओगपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया, जाव आययसंठाणपरिणया वि । एवं एए णव दंडगा।
भावार्थ-जो पुद्गल अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वोकायिक एकेन्द्रिय औदारिक तेजस् कार्मण तया स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से काला वर्णपने भी यावत् आयत संस्थानपने भी परिणत हैं। वे जो पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेंद्रिय औदारिक तेजस् कार्मण तथा स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे भी इसी प्रकार
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