________________
१२५२
भगवती मूत्र-श. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप
पजत्ता-सबट्टसिद्ध- अणुत्तरोववाइय-देवपंचिंदियवेउब्विय-तेया-कम्मासरीर-जाव परिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि, जाव आययसंठाणपरिणया वि । (दं. ७)
कठिन शब्दार्थ-- णेयवा--जानना चाहिये ।
भावार्थ-जो पुद्गल अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक तैजस् कार्मण शरीर प्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से काला वर्णपने भी परिणत हैं, यावत् आयत संस्थान रूप से भी परिणत हैं। इस प्रकार पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक तेजस कार्मण शरीर प्रयोग-परिणत भी जानना चाहिये । इस प्रकार यथानुक्रम से जानना चाहिये । जिसके जितने शरीर हों उतने कहना चाहिये। यावत् जो पुद्गल पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक देव पञ्चेन्द्रिय वक्रिय तेजस कार्मण शरीर प्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से काला वर्णपने यावत् संस्थान से आयत संस्थान रूप परिणत हैं।
विवेचन-औदारिक आदि शरीर और वर्णादि सहित यह सातवाँ दण्डक कहा गया है।
आठवाँ दण्डक
जे अपजत्तासुहुमपुढविकाइयएगिदिय-फासिंदियपयोग-परिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया, जाव आययसंठाणपरिणया वि । जे पजत्तामुहुमपुढविकाइय० एवं चेव । एवं जहाणुपुब्बीए जस्स जइ इंद्रियाणिं तस्स तइ भाणियवाणि, जाव जे पजत्तासम्वसिद्धअणुत्तरोववाइअ-जाव देवपंचिंदियसोइंदिय जाव-फासिदियपयोगपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया, जाव आययमंठाणपरिणया वि (दं. ८)।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org