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________________ भगवती सूत्र - ८ उ १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप सव्वट्टसिद्ध अणुत्तरोववाहअ० जाव परिणया ते वण्णओ काल वण्णपरिणया वि, जाव आययमंठाणपरिणया वि । (दं. ६) कठिन शब्दार्थ - - वट्ट -- वृत्त (गोल) तंस - - त्र्यत्र (त्रिकोण) चउरंस --: - चतुरस्र ( चतुष्कोण) तित्तरस - तिक्तरस, कडुक - कटुक, कसाय – कपैला, अबिल - - आम्ल (खट्टा ) महर -- मधुर (मीठा ) कक्खड - कर्कश, लक्ख- रूक्ष, जहाणुपुब्बीए - यथानुपूर्वी (अनुकम से ) । भावार्थ- जो पुद्गल अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं, वे वर्ण से काला, नीला, लाल, पीला और श्वेत, इन पाँचों वर्णपने परिणत हैं । गन्ध से सुरभिगन्ध और दुरभिगन्धपने परिणत हैं। रस से तीखा, कड़वा, कला, खट्टा और मीठा, इन पांचों रसपने परिणत हैं। स्पर्श से कर्कश, कोमल, शीत, उष्ण, हलका, भारी, स्निग्ध और रूक्ष. इन आठों स्पर्शपने परिणत हैं । संस्थान से परिमण्डल, वृत्त, ज्यत्र चतुरस्र और आयत, इन पाँचों संस्थापने परिणत हैं। जो पुद्गल पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे इसी प्रकार जानने चाहिये और इसी प्रकार यावत् सभी के विषय में क्रमपूर्वक जानना चाहिये यावत् जो पुद्गल पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक देव प्रयोग- परिणत हैं, वे वर्ण से, काला वर्णपने यावत् संस्थान से आयत संस्थान तक परिणत हैं । विवेचन-- छठे दण्डक में वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा कथन किया गया है। सातवाँ दण्डक जे अपज्जता मुहुम पुढविकाइयए गिंदियओरा लिय-तेया-कम्मासरीरप्पओगपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि, जाव, आययसंठाणपरिणया वि । जे पज्जत्तासुहुमपुढविकाइय० एवं देव । एवं जहाणुपुव्वीए णेयव्वं, जस्स जड़ सरीराणि, जाव जे Jain Education International १२५१ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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