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भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप
भावार्थ-जो पुद्गल अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक, तेजस् और कार्मण शरीर प्रयोग-परिणत हैं, वे स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं। जो पुद्गल पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक, तेजस् और कार्मण शरीर प्रयोग-परिणत हैं, वे भी स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं। इसी प्रकार अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक और पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक के विषय में भी कहना चाहिये । इसी प्रकार के अभिलाप द्वारा जिस जीव के जितनी इन्द्रियाँ और जितने शरीर हों, उसके उतनी इन्द्रियों और उतने शरीरों का कथन करना चाहिये । यावत् जो पुद्गल पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक देव पंचेन्द्रिय वैक्रिय, तेजस् और कार्मण शरीर प्रयोग-परिणत हैं, वे श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं।
. विवेचन--पांचवें दण्डक में शरीर और इन्द्रिय, इन दोनों की अपेक्षा कथन किया गया है।
छठा दण्डक
____जे अपज्जत्तासुहम-पुढविक्काइय-एगिदिय-पओग-परिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि, णील-लोहिय-हालिह-सुकिल०, गंधओ मुभिगंधपरिणया वि; दुन्भिगंधपरिणया वि; रसओ तित्तरसपरिणया वि, कायरसपरिणया वि, कसायरसपरिणया वि, अंबिलरसपरिणया वि, महुररसपरिणया वि; फासओ कवखडफासपरिणया वि, जाव लुक्खफासपरिणया वि; संठाणओ परिमण्डलसंठाणपरिणया वि, वट्ट-तम-चउरंस-आयय-मंठाणपरिणया वि । जे पजत्तमुहुमपुढवि० एवं चेव; एवं जहाणुपुब्बीए णेयब्वं, जाव जे पजत्ता
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