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________________ १२४० भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप यथा-अधस्तन-अधस्तन (नीचे की त्रिक का नीचे का विमान प्रस्तट) ग्रेवेयक कल्पातीत वैमानिक देव यावत् उपरितन-उपरितन (ऊपर की त्रिक का ऊपर का विमान प्रस्तट) ग्रेवेयक-कल्पातीत वैमानिक देव । १६ प्रश्न-हे भगवन् ! अनत्तरौपपातिक-कल्पातीत वैमानिकदेव पंचेंद्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? १६ उत्तर-हे गौतम ! वे पांच प्रकार के कहे गये हैं । यथा-विजय अनुत्तरौपपातिक-वैमानिक देव पचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल यावत् सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक वैमानिक देव पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल । (दण्डक १) विवेचन-अब नवदण्डक द्वारा प्रयोग-परिणत पुद्गलों का निरूपण किया जाता है। यहाँ विवक्षा विशेष से नव दण्डक (विभाग) किये गये हैं । यथा-सूक्ष्म एकेन्द्रिय से लेकर सर्वार्थसिद्ध देवों तक जीवों की विशेषता से प्रयोग-परिणत पुद्गलों का प्रथम दण्डक है। २ इस तरह सूक्ष्म पृथ्वी-कायिक जीवों से लेकर सर्वार्थसिद्ध देवों तक पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दूसरा दण्डक है। ३ औदारिक आदि पांच शरीरों की अपेक्षा से तीसरा दण्डक कहा गया है । ४ पांच इन्द्रियों की अपेक्षा से चौथा दण्डक कहा गया है । ५ औदारिक आदि पांच शरीर और स्पर्शन आदि पांच इन्द्रियाँ, इन दोनों की सम्मिलित विवक्षा से पाँचवाँ दण्डक कहा गया है । ६ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से छठा दण्ड क कहा गया है । ७ औदारिक आदि गरीर और वर्गादि की अपेक्षा से सांतवाँ दण्डक कहा गया है। ८ इन्द्रिय और वर्णादि की अपेक्षा से आठवाँ दण्डक कहा गया है। ९ शरीर, इन्द्रिय और वर्णादि की अपेक्षा से नौवां दण्डक कहा गया है । इन नौ दण्डकों में से यहाँ प्रथम दण्डक का वर्णन किया गया है। सर्व प्रथम एकेन्द्रिय जीवों का कथन किया गया है। उनमें पृथ्वीकाय, अकाय आदि पांचों स्थावरों के सूक्ष्म और बादर ये दो दो भेद किये गये हैं। वे इन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के हैं । यथा-लट, गिण्डोला, शंख, शीप, कीड़ा, कृमि आदि । इसी प्रकार तेइन्द्रिय जीवों के भी अनेक भेद हैं । यथा-कुन्थु, पिपीलिका (चींटी) जू, लीख, चांचड़ (गाय, भैस आदि के चिपटने वाले जीव चिचड़) माकड़ (खटमल) आदि । चतुरिन्द्रिय जीव भी अनेक प्रकार के हैं । यथा-मक्खी, मच्छर आदि । पंचेन्द्रिय जीवों के ने रयिक, तियंच, मनुष्य और देव, ये मुख्य चार भेद हैं। विवक्षा विशेष से इनके अवान्तर अनेक भेद हैं । सामान्यरूप से उनका कथन ऊपर किया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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