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________________ १३५६. भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान की व्यापकता (विषय द्वार) भेद की विवक्षा नहीं करने से मतिज्ञान के अट्ठाईस भेद कहे गये हैं। उपयोग सहित श्रुतज्ञानी (सम्पूर्ण दसपूर्वधर आदि श्रुतकेवली) धर्मास्तिकाय आदि सभी द्रव्यों को विशेष रूप से जानता है और श्रुतानुसारी मानस-अचक्षु दर्शन द्वारा सभी अभिलाप्य द्रव्यों को देखता है । इस प्रकार क्षेत्रादि के विषय में भी जानना चाहिये । भाव से उपयुक्त श्रुतज्ञानी, औदयिक आदि समस्त भावों को अथवा सभी अभिलाप्य भावों को जानता है । यद्यपि अभिलाप्य भावों का अनन्तवां भाग ही श्रुत प्रतिपादित है, तथापि प्रसंगानुप्रसंग से सभी अभिलाप्य भाव श्रुतज्ञान के विषय हैं । इसलिये उनकी अपेक्षा सर्व भावों को जानता है'-ऐसा कहा गया है। द्रव्य से अवधिज्ञानी जघन्य तेजस् और भाषा द्रव्यों के अन्तरालवर्ती सूक्ष्म अनन्त पुद्गल द्रव्यों को जानता है। उत्कृष्ट बादर और मूक्ष्म, सभी द्रव्यों को जानता है । अवधिदर्शन से देखता है । क्षेत्र से अवधिज्ञानी जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को जानता और देवता है। उत्कृष्ट समस्त लोक और लोक सरीखे असंख्यात खण्ड अलोक में हों, तो उनको भी जानने और देखने की शक्ति है । काल से अवधिज्ञानी, जघन्य आवलिका के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्ट असंख्यात उत्सपिणी, अवसर्पिणी अतीत, अनागत काल को जानता पौर देखता है । अर्थात् इतने काल में रहे हुए रूपी द्रव्यों को जानता और देवता है । भाव मे अवधिज्ञानी, जघन्य अनन्त भावों को जानता और देखता है। परन्तु प्रत्येक द्रव्य के अनन्त भावों को नहीं जानता, नहीं देखता । उत्कृष्ट से भी अनन्त भावों को जानता और देखता है । परन्तु वे भाव समस्त पर्यायों के अनन्तवें भाग रूप जानने चाहिये । मनःपर्यय ज्ञान के दो भेद हैं । ऋजुमति और विपुलमति । सामान्यग्राही मति को 'ऋजमति मनःपर्याय ज्ञान' कहते हैं । जैसे कि 'इसने घट का चिन्तन किया है।' इस प्रकार का सामान्य कितनीक पर्याय विशिष्ट मनोद्रव्य का ज्ञान । द्रव्य से ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानी ढाई द्वीप में रहे हुए संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के मन रूप से परिणत मनोवगंणा के अनल स्कन्धों को साक्षात् जानता, देखता है। परन्तु उसके द्वारा चिन्तित घटादि रूप पदार्थ को (इस प्रकार के आकार वाला मनोद्रव्य का परिणाम, इस प्रकार के चिन्तन के विना घटित नहीं हो सकता-इस प्रकार की अन्यथानुपपत्ति रूप अनुमान से) जानता है। इसलिय 'पासइ-पश्यति-देखता है '--ऐसा कहा गया है। विपुलमति मनःपर्ययज्ञान--विपुल का अर्थ है-'अनेक विशेषग्राही' अर्थात् अनेक विशेषता युक्त मनोद्रव्य के ज्ञान को विपुलमति मनःपर्यय जान कहते हैं । जैसे कि--'इसने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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