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________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान की व्यापकता (विषय द्वार) १३५५ १०८ प्रश्न-हे भगवन् ! श्रुतअज्ञान का विषय कितना कहा गया है ? १०८ उत्तर-हे गौतम ! वह संक्षेप से चार प्रकार का कहा गया है। यथा-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से । द्रव्य से श्रुतअज्ञानी, श्रुतअज्ञान के विषयभूत द्रव्यों को कहता है, बतलाता है और प्ररूपित करता है । इस प्रकार क्षेत्र से और काल से भी जानना चाहिये। भाव की अपेक्षा श्रुतअज्ञानी, श्रुतअज्ञान के विषयभूत भावों को कहता है, बतलाता है और प्ररूपित करता है। १०९ प्रश्न-हे भगवन् ! विमंगज्ञान का विषय कितना कहा गया हैं ? १०९ उत्तर-हे गौतम ! वह संक्षेप से चार प्रकार का कहा गया है, यथाद्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। द्रव्य की अपेक्षा विभंगज्ञानी, विभंगज्ञान के विषयभूत द्रव्यों को जानता और देखता है। यावत् भाव से विमंगज्ञानी विभंगज्ञान के विषयभूत भावों को जानता और देखता है। - विवेचन-ज्ञान विषयद्वार-आभिनिबोधिक ज्ञान का विषय चार प्रकार का बतलाया गया है । यथा-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। द्रव्य का अर्थ है-धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य । क्षेत्र का अर्थ है-द्रव्यों का आधारभूत आकाश । काल का अर्थ है-द्रव्यों के पर्यायों की स्थिति । भाव का अर्थ है-औदयिक आदि भाव अथवा द्रव्य के पर्याय । इनमें से द्रव्य की अपेक्षा जो आभिनिबोधिक ज्ञान हो, वह धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों को आदेश से अर्थात् ओघरूप से (सामान्यतया) द्रव्य-मात्र जानता है। परन्तु उसमें रही हुई सभी विशेषताओं से नहीं जानता। अथवा आदेश का अर्थ-'श्रुतज्ञान जनित संस्कार,' इसके द्वारा अवाय और धारणा को अपेक्षा जानता है । क्योंकि अवाय और धारणा ज्ञान रूप है। तथा अवग्रह और ईहा से देखता है । क्योंकि अवग्रह और ईहा-दर्शनरूप है। श्रुतज्ञान जन्य संस्कार द्वारा लोकालोक रूप सर्व-क्षेत्र को जानता है । इस प्रकार काल से सभी काल को और भाव से औदयिक आदि पांच भावों को जानता है। शंका-मतिज्ञान के अट्ठाईस भेद कहे गये हैं । किन्तु अवाय और धारणा को ही ज्ञानरूप मानने से श्रोत्रादि के भेद से मतिज्ञान के बारह ही भेद रह जायेंगे । तथा श्रोत्रादि के भेद से अवग्रह और ईहा के बारह भेद तथा भ्यञ्जनावग्रह के चार भेद ये कुल सोलह भेद वक्षु आदि दर्शन के होंगे ? फिर मतिज्ञान के अट्ठाईस भेद किस प्रकार घटित होंगे? समाधान-शंका ठीक है, किन्तु यहां मतिज्ञान और चक्षुआदि दर्शन इन दोनों के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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