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________________ १३०२ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान के भेद ज्ञानी हैं, उनमें से कुछ जीव, दो ज्ञान वाले हैं, कुछ जीव तीन ज्ञान वाले हैं, कितनेक जीव चार ज्ञान वाले हैं और कुछ जीव एक ज्ञान वाले हैं। जो दो ज्ञान वाले हैं, वे मतिज्ञान और श्रुतज्ञान वाले है । जो तीन ज्ञान वाले हैं, वे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान वाले हैं, अथवा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान वाले हैं। जो जीव चार ज्ञान वाले हैं, वे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान वाले हैं। जो जीव, एक ज्ञान वाले हैं, वे अवश्य ही केवलज्ञान वाले हैं । जो जीव अज्ञानी हैं, उनमें कुछ जीव दो अज्ञान वाले हैं और कुछ जीव तीन अज्ञान वाले हैं। जो दो अज्ञान वाले हैं, वे मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान वाले हैं । जो तीन अज्ञान वाले हैं, वे मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान वाले हैं। विवेचन-आभिनिबोधिक ज्ञानं (मतिज्ञान) इन्द्रिय और मन की सहायता से, योन्य देश में रही हुई वस्तु को जानने वाला ज्ञान 'आभिनिबोधिक ज्ञान' कहलाता है। श्रुतज्ञान-वाच्य वाचक भाव सम्बन्ध द्वारा शब्द से सम्बद्ध अर्थ को ग्रहण कराने वाला, इन्द्रिय मन कारणक ज्ञान श्रुतज्ञान है । जैसे-इस प्रकार कम्बुग्रीवादि आकार वाली वस्तु जलधारणादि क्रिया में समर्थ है और 'घट' शब्द से कही जाती है, इत्यादि रूप से शब्दार्थ की पर्यालोचना के बाद होने वाले कालिक सामान्य परिणाम को प्रधानता देने वाला ज्ञान, श्रुतज्ञान है। अथवामतिज्ञान के अनन्तर होने वाला और शब्द तथा अर्थ की पर्यालोचना जिसमें हो ऐसा ज्ञान 'श्रुतज्ञान' कहलाता है । जैसे कि-घट शब्द के सुनने पर अथवा आँख से घड़े के देखने पर उसके बनाने वाले का, उसके रंग का और इसी प्रकार तत् सम्बन्धी भिन्न-भिन्न विषयों का विचार करना 'श्रुतज्ञान' है। _अवधिज्ञान-इन्द्रिय तथा मन की सहायता के बिना मर्यादा को लिये हुए रूपी द्रव्य का ज्ञान करना-'अवधिज्ञान' कहलाता है। मनःपर्ययज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना मर्यादा को लिये हुए, संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जानना-'मनःपर्यय ज्ञान' है। केवलज्ञान-मति आदि ज्ञान की अपेक्षा विना त्रिकाल एवं त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थों का युगपत् हस्तामलकवत् जानना 'केवलज्ञान' है। मतिज्ञान के चार भेद-१ अवग्रह, २ ईहा, ३ अवाय, और ४ धारणा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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