________________
भगवती सत्र-श. ८ उ. १० श्रत और शील के आराधक
१५३७
समापन्न कजीव, सर्व-बंधकों से बहुत हैं। इसलिये अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। उनसे देशबंध का काल असंख्यात गुण है । उनसे तेजस् और कार्मण-शरीर के देश-बंधक विशेषाधिक हैं। क्योंकि समी संसारी जीव तेजस् और कार्मण के देशबंधक होते हैं. इनमें विग्रहगति-समापनक जीव, औदारिक सर्व-बंधक जीव और वैक्रिय आदि बंधक जीव सम्मिलित हैं । अतः औदारिक देश-बधकों से ये विशेषाधिक कहे गये हैं। उनसे वैक्रिय-शरीर के अबन्धक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वैक्रिय के बन्धक प्रायः देव और नारक जीव ही है। शेष सभी संसारी जीव और सिद्ध भगवान् वैक्रिय के अबंधक हैं, इनमें सिद्धजीव सम्मिलित हैं । अतः वे तेजसादि देशबंधकों से अधिक हैं। इसलिये वैक्रिय-शरीर के अबंधक विशेषा- . धिक कहे गये हैं। उनसे आहारक-शरीर के अबंधक विशेषाधिक हैं, क्योंकि आहारकशरीर तो केवल मनुष्यों के ही होता है और वैक्रिय-शरीर तो मनुष्यों के अतिरिक्त देव, नारक और तिर्यञ्च के भी होता है। इसलिये क्रिय-बंधकों की अपेक्षा आहारक-बन्धक जीव थोड़े हैं । इसी प्रकार वैक्रिय प्रबंधकों से आहारक अबंधक विशेषाधिक हैं।
॥ इति आठवें शतक का नौवां उद्देशक समाप्त ॥
शतक ८ उद्देशक १०
शुत और शील के आराधक
प्रश्न-रायगिहे गयरे जाव एवं वयासी, अण्णउत्थिया गं भंते ! एवं आइक्खंति, जाव एवं परूति-"एवं खलु-१ सीलं सेयं, २ सुयं मेयं, ३ सुयं सेयं सील सेयं;" से कहमेयं भंते ! एवं ?
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org