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भगवती सूत्र - श. ७ उ. ४ संसार-समापनक जीव
विवेचन — अव्यवच्छित्ति नय का अर्थ है- द्रव्य की अपेक्षा और व्यवच्छित्ति नय का अर्थ है - पर्यायों की अपेक्षा । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा सभी पदार्थ शाश्वत हैं और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा सभी पदार्थ अशाश्वत हैं ।
॥ इति सातवें शतक का तीसरा उद्देशक समाप्त ॥
शतक ७ उद्देशक ४
संसार - समापन्नक जीव
१ प्रश्न - रायगिहे णयरे जाव एवं वयासी - कइ विहा णं भंते ! संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता ?
१ उत्तर - गोयमा ! छव्विहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा - पुढविकाइया, एवं जहा जीवाभिगमे जाव सम्मत्त किरियं वामिच्छत्तकिरियं वा ।
+ जीवा छव्विह पुढवी जीवाण ठिई भवट्ठिई काये । पिल्लेवण अणगारे किरिया सम्मत्त - मिच्छत्ता || सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति
|| सत्तमस चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो ॥
कठिन शब्दार्थ - संसारसमावण्णगा-संसार में रहने वाले, पिल्लेवण - निर्लेपन -
खाली होना ।
+ यह गाथा वाचनान्तर है-ऐसा टीकाकार लिखते हैं ।
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