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__ भगवती सूत्र-श. ७ उ. = अप्रत्यास्यानिकी क्रिया आदि
भगवती सत्रडा.
आदि ‘माया संजा' है।
(८) लोभ संज्ञा-लोभ के उदय से सचित्त या अचित्त पदार्थों को प्राप्त करने की लालसा करना 'लोभ संज्ञा' है।,
(1) ओघ संज्ञा-मतिज्ञानावरण आदि के क्षयोपशम से शब्द और अर्थ के सामान्य ज्ञान को 'ओघ संज्ञा' कहते हैं ।
(१०) लोक संज्ञा-सामान्य रूप से जानी हुई बात को विशेष रूप से जानना 'लोकसंज्ञा' है । अर्थात् दर्शनोपयोग को 'ओघ-संज्ञा' और ज्ञानोपयोग को. लोक संज्ञा' कहते हैं। किसी के मत से ज्ञानोपयोग ओघ-संज्ञा है और दर्शनोपयोग लोक-संजा । सामान्य प्रवृत्ति को 'ओघ-संज्ञा' कहते हैं तथा लोक दृष्टि को 'लोक-संज्ञा' कहते हैं, यह भी एकमत है।
अप्रत्याख्यानिकी क्रिया आदि
६ प्रश्न-से णूणं भंते ! हत्थिस्स य कुंथुस्स य समा चेव अपबक्खाणकिरिया कजइ ?
६ उत्तर-हंता, गोयमा ! हथिस्स य कुंथुस्स य जाव कजइ । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव कजइ ? उत्तर-गोयमा ! अविरइं पडुच्च, मे तेणटेणं जाव कजइ ।
कठिन शब्दार्थ-अपच्चक्खाणकिरिया-विरति (त्याग) के अभाव में लगनेवाली क्रिया।
भावार्थ-६ प्रश्न--हे भगवन् ! क्या हाथी और कुन्थुए के जीव को अप्रत्याख्यानिकी क्रिया समान लगती है ?
६ उत्तर-हाँ, गौतम ! हाथी और कुन्थुए के जीव को अप्रत्याख्यानी क्रिया समान लगती है।
प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ?
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