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भगवती मूत्र-श. ७ उ. ८ पाप दुःखदायक
यावत् वैमानिक पर्यन्त चौवीस ही दण्डक में ये दस संज्ञायें पाई जाती हैं।
५-नरयिक जीव दस प्रकार की वेदना का अनुभव करते हुए रहते हैं। यथा-१ शीत, २ उष्ण, ३ क्षुधा, ४ पिपासा, ५ कण्डू (खुजली), ६ परतन्त्रता, ७ ज्वर, ८ दाह, ९ भय, १० शोक ।
विवेचन-नैरयिक जीव जो पापकर्म करते हैं, किये हैं, और करेंगे वे सब दुःख के हेतु और संसार का कारण होने से दुःख रूप हैं और जिन पाप-कर्मों की निर्जरा की है, वे मुख स्वरूप मोक्ष (छुटकारे) का हेतु होने से सुख स्वरूप हैं।
नरयिकादि संज्ञी हैं. इसलिये आगे संज्ञा का वर्णन किया जाता है । यथा
वेदनीय और मोहनीय कर्म के उदय से तथा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से पैदा होने वाली आहारादि की प्राप्ति के लिये आत्मा की इच्छा विशेष को संज्ञा' कहते हैं। अथवा जिन बातों से यह जाना जाय कि जीव आहारादि को चाहता है, उसे 'संज्ञा' कहते हैं। किसी के मन से मानसिक ज्ञान ही मंज्ञा है अथवा जीव का आहारादि विषयक चिन्तन 'संजा' है । इसके दस भेद हैं:.: (१) आहार संज्ञा-क्षुधावेदनीय के उदय से कवलादि आहार के लिये पुद्गल ग्रहण करने की इच्छा को 'आहार-संज्ञा' कहते हैं ।
(२) भय संज्ञा-भय मोहनीय के उदय से व्याकुल चित्त वाले पुरुष का भयभीत होना, घबराना, रोमाञ्च, शरीर का कम्पन आदि क्रियाएं 'मय-संज्ञा' हैं ।
(३) मैथुन संज्ञा-पुरुष-वेदादि (नो कषायरूप वेदमोहनीय) के उदय से, स्त्री आदि के अंगों को देखने, छुने आदि की इच्छा तथा उससे होने वाले शरीर में कम्पन आदि, जिनसे मथुन की इच्छा जानी जाय, 'मैथुन-संज्ञा' कहते हैं ।
(४) परिग्रह संज्ञा-लोभरूप कषाय-मोहनीय के उदय से संसार बन्ध के कारणों में आसक्तिपूर्वक सचित्त और अचित्त द्रव्यों को ग्रहण करने की इच्छा ‘परिग्रह-संज्ञा' कहलाती है।
(५) क्रोध संज्ञा-क्रोध के उदय से आवेश में भर जाना, मुंह का सूखना, आँखें लाल हो जाना और कांपना आदि क्रियाएँ 'क्रोध संज्ञा' हैं ।
- (६) मान संज्ञा--मान के उदय से आत्मा के अहंकारादि रूप परिणामों को 'मान संज्ञा' कहते हैं। .
. (७) माया मंजा--माया के उदय से बुरे भाव सेकर दूसरे को ठगना, झूठ बोलना
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