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________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ६ अकृत्यसेवी आराधक ? १४०५ १४ उत्तर-हे गौतम ! जैसे कोई पुरुष ऊन (भेड) के बाल, हाथी के बाल, या सण के रेसे (तन्तु)कपास के रेसे तथा तण, इन सब के एक, दो तीन यावत् संख्येय टुकडे करके अग्नि में डाले,तो काटते हुए वे काटे गये और अग्नि में डालते हुए 'डाले गये,' जलते हुए 'जले'-इस प्रकार कहलाता है ? (गौतम स्वामी कहते हैं) हां, भगवन् ! काटे जाते हुए-काटे गये' डाले जाते हुए-'डाले गये' और जलते हुए-'जले' इस प्रकार कहलाते है। (भगवान् फिर फरमाते हैं। अथवा कोई पुरुष, नवीन अथवा धोये हुए अथवा यन्त्र से तुरन्त उतरे हुए वस्त्र को मजीठ के द्रोण (पात्र) में डाले, तो हे गौतम ! क्या उठाते हुए वह कपड़ा उठाया गया, डालते हुए वह डाला गया और रंगते हुए वह 'रंगा गया-ऐसा कहा जाता है ? (गौतम स्वामी कहते है ।) हां, भगवन् ! उठाते हुए उठाया गया, डालते हुए 'डाला गया और रंगते हुए 'रंगा गया'-ऐसा कहा जाता है। (भगवान् फरमाते हैं) हे गौतम ! इसी प्रकार जो साधु या साध्वी, आराधना करने के लिये तैयार हुआ है, वह 'आराधक है, विराधक नहीं'-ऐसा कहा जाता है । . विवेचन-प्रथम शतक के प्रारम्भ में ही 'चलमाणे चलिए' यावत् "णिज्जरिज्जमाणे णिज्जिणे' का सिद्धान्त प्रतिपादन किया गया है। यही बात यहाँ ऊन, सण, कपास आदि के तन्तुओं को काटने, अग्नि में डालने और जलाने का कथन करके तथा नवीन एवं धोये हुए सफेद कपड़े को मजीठ के रंग में डालने और रंगने का कथन करके, एवं इनका दृष्टान्त देकर आराधकता की बात को पुष्ट किया गया है । तात्पर्य यह है कि किसी साधु या साध्वी से मूलगुणादि में दोषरूप अकार्य का सेवन हो गया हो, उसके बाद तत्काल ही वह स्वयं ही आलोचना आदि कर लेता है और बाद में गुरुजनों के पास आलोचना करने के लिये चल देता है, किन्तु वहां पहुंचने के पहले ही गुरुजन मूक हो जायँ, अथवा काल कर जाय, या स्वयं मूक हो जाय अथवा काल कर जाय, इसी प्रकार वहां पहुंचने पर आलोचना करने से पहले गुरुजन मूक हो जाये या काल कर जाय अथवा आप स्वयं मूक हो जाय, या काल कर जाय, तो वह साधु या साध्वी, आराधक है, विराधक नहीं। क्योंकि उसके परिणाम आलोचना करने के हो गये थे और वह आलोचना करने के लिये उद्यत भी हो गया था। उपरोक्त परिस्थिति के कारण वह आलोचना नहीं कर सका, ऐसी अवस्था में भी वह पूर्वोक्त सिद्धान्तानुसार आराधक ही है, विराधक नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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